ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 19
ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वाम॑ग्ने मनी॒षिण॒स्त्वां हि॑न्वन्ति॒ चित्ति॑भिः । त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । म॒नी॒षिणः॑ । त्वाम् । हि॒न्व॒न्ति॒ । चित्ति॑ऽभिः । त्वाम् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने मनीषिणस्त्वां हिन्वन्ति चित्तिभिः । त्वां वर्धन्तु नो गिर: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । अग्ने । मनीषिणः । त्वाम् । हिन्वन्ति । चित्तिऽभिः । त्वाम् । वर्धन्तु । नः । गिरः ॥ ८.४४.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, the intellectuals with their thoughts and imaginative creations move and exalt you. May our voices of adoration delight you and exalt your glory.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी त्याचीच (ईश्वराची) पूजा करावी, करवावी व त्याचीच कीर्ती गावी. इतरांनीही त्याचेच अनुकरण करावे. ॥१९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वगतिप्रद ! मनीषिणः=मनस्विनो विद्वांसः । त्वामेव ध्यायन्ति । त्वामेव । चित्तिभिः=चेतोभिः विविधकर्मभिश्च वा । हिन्वन्ति=प्रीणयन्ति । हे भगवन् ! अतः नोऽस्माकम् । गिरोवचनानि । त्वामेव वर्धन्तु । तवैव कीर्तिम् । वर्धयन्तु ॥१९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगतिप्रद ईश ! (त्वाम्) तुझको ही (मनीषिणः) मनस्वी विद्वान् ध्याते हैं । (त्वाम्) तुझको ही विद्वद्वर्ग (चित्तिभिः) चित्तों और विविध कर्मों के द्वारा (हिन्वन्ति) प्रसन्न करते हैं, अतः हे भगवन् ! (नः) हमारे (गिरः) वचन (त्वाम्+वर्धन्तु) आपकी ही कीर्ति को (वर्धन्तु) बढ़ावें ॥१९ ॥
भावार्थ
विद्वानों को उचित है कि वे उसी की पूजा करें करवावें और उसी की कीर्ति गावें । इतर जन भी इनका ही अनुकरण करें ॥१९ ॥
विषय
ज्ञानी, स्तुतियोग्य प्रभु।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! ( मनीषिणः ) मन को सन्मार्ग में चलाने वाले, ज्ञान के अभिलाषी ( त्वां ) तुझे चाहते हैं। ( त्वां चित्तिभिः हिन्वन्ति ) तुझे कर्मों से प्रसन्न करते हैं। ( नः गिरः ) हमारी वाणियें भी ( त्वां वर्धन्तु ) तुझे ही बढ़ावें, तेरा ही गुणगान करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
चित्तिभिः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (मनीषिणः) = मन को वश में करनेवाले समझदार उपासक (त्वां) = आपको, और (त्वां) = आपको ही (चित्तिभिः) = भक्ति के द्वारा (हिन्वन्ति) = प्रीणित करते हैं। [२] हे प्रभो ! (नः) = हमारी (गिराः) = ये स्तुतिवाणियाँ (वर्धन्तु) = आपका वर्धन करें। इन स्तुतिवाणियों के द्वारा हम आपके गुणों का सर्वत्र प्रख्यापन करें।
भावार्थ
भावार्थ- समझदार मनुष्य भक्ति द्वारा प्रभु को प्रीणित करते हैं। स्तुतिवाणियों द्वारा प्रभु की महिमा का ही सर्वत्र वर्धन करते हैं।
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