ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 22
उ॒त त्वा॑ धी॒तयो॒ मम॒ गिरो॑ वर्धन्तु वि॒श्वहा॑ । अग्ने॑ स॒ख्यस्य॑ बोधि नः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्वा॒ । धी॒तयः॑ । मम॑ । गिरः॑ । व्ऋ॒ध॒न्तु॒ । वि॒स्वहा॑ । अग्ने॑ । स॒ख्यस्य॑ । बो॒धि॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्वा धीतयो मम गिरो वर्धन्तु विश्वहा । अग्ने सख्यस्य बोधि नः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । त्वा । धीतयः । मम । गिरः । व्ऋधन्तु । विस्वहा । अग्ने । सख्यस्य । बोधि । नः ॥ ८.४४.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of united existence, may all my thoughts, words and actions adore, exalt and glorify you day and night. O lord of humanity, pray acknowledge and ever remember and maintain our bond of love and friendship with you.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुमचे ध्यान ईश्वराचे गुण वाढविणारे असावे. तुमचे वचनही त्याची कीर्ती वाढविणारे असावे. त्याला तुम्ही शरण जा. तेव्हाच तो मित्राप्रमाणे तुमचा स्वीकार करेल. ॥२२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! मम । धीतयः=ध्यानानि, सर्वाणि कर्माणि च । पुनः गिरोवचनानि विद्याः स्तुतयश्च । विश्वहा=सर्वाणि अहानि सर्वदा । त्वामेव । उपवर्धन्तु=वर्धयन्तु । हे अग्ने ! नोऽस्माकम् । सख्यस्य । सख्यं बोधि=बुध्यस्व=जानीहि ॥२२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगति सर्वशक्ति ईश ! (मम) मेरे (धीतयः) सम्पूर्ण ध्यान, समस्त कर्म और (गिरः) सर्व वचन विद्याएँ और स्तुतियाँ (त्वा) तेरी ही कीर्ति को (उप+वर्धन्तु) बढ़ावें । (अग्ने) हे ईश ! (नः+सख्यस्य) हमारी मित्रता को (बोधि) स्मरण रखिये ॥२२ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! तुम्हारे ध्यान ईश्वर के गुण बढ़ानेवाले हों, तुम्हारे वचन भी उसी की कीर्ति बढ़ावें और गावें, उसी की शरण में तुम पहुँचो । तब ही तुमको वह मित्र के समान ग्रहण करेगा ॥२२ ॥
विषय
भक्त की अनन्यता उपास्यमयता।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी, नायक ! हे विद्वन् ! ( मम ) मेरे ( धीतयः ) उत्तम कर्म, और ( मम गिरः ) मेरी वाणियां ( त्वा विश्वहा वर्धन्तु ) तुझे सदा बढ़ावें और तू ( नः सख्यस्य बोधि ) हमारे मित्रभाव को सदा जान।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
धीतयः-गिरः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (उत) = और (मम) = मेरे (धीतयः) = कर्म तथा (गिरः) = स्तुतिवाणियाँ (विश्वहा) = सदा (त्वा वर्धन्तु) = आपका वर्धन करें। हम कर्मों के द्वारा आपका पूजन करें और स्तुतिवाणियों द्वारा आपके गुणों का प्रतिपादन करें। [२] हे अग्ने ! आप (नः) = हमारे (सख्यस्य) = मित्रभाव को (बोधि) = जानिये। हम सदा आपकी मैत्री में सब व्यवहारों को करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम कर्मों व स्तुतिवाणियों के द्वारा प्रभु का अपने में वर्धन करें। हे प्रभो ! हमें आपकी मित्रता सदा प्राप्त हो ।
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