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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 24
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वसु॒र्वसु॑पति॒र्हि क॒मस्य॑ग्ने वि॒भाव॑सुः । स्याम॑ ते सुम॒तावपि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वसुः॑ । वसु॑ऽपतिः । हि । क॒म् । असि॑ । अ॒ग्ने॒ । वि॒भाऽव॑सुः । स्याम॑ । ते॒ । सु॒ऽम॒तौ । अपि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसुर्वसुपतिर्हि कमस्यग्ने विभावसुः । स्याम ते सुमतावपि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वसुः । वसुऽपतिः । हि । कम् । असि । अग्ने । विभाऽवसुः । स्याम । ते । सुऽमतौ । अपि ॥ ८.४४.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 24
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, you are the shelter home of all, lord protector and ruler of the world’s wealth, blissful, refulgent lord of kindness and love. We pray let us be under the protection of your goodwill.

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    Purport

    O Supreme Lord! You are Vasuh i.e. You are the abode of all and indeweller in all. You are the master of elements like earth etc. which are the dwelling places of all. O Self-Effulgent God! You are Knowledge, Bliss and Lusturous by your divine nature. You alone are the bestower of happiness on all and embodiment of happiness. O Blissful Lord! You are Immutable and, Eternal. By your unassailable splendour you are indeed incomparable. O God! May we remain stead-fast and firmly bound in your most excellent wisdom and mutual friendly affection.

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वर अत्यंत धनवान आहे. तो परम उदार आहे. त्याचे धन प्रकाशरूप आहे. त्यासाठी आम्ही माणसांनी आपल्या शुद्ध आचरणाने व सत्याने त्याच्या कृपेचे पात्र बनावे. ॥२४॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे परमेश्वरा ! तू (वसुः) म्हणजे सर्वाना आपल्या मध्ये बसविणारा व सर्वामध्ये बसलेला आहेस. तसेच (वसुपतिः) पृथ्वी इत्यादी वसणाऱ्या पंचमहाभूतांचा पती आहेस. (कमसि) हे अग्ने, विज्ञानन्दे व स्वप्रकाशस्वरूप असणाऱ्या [ईश्वरा] ! तु सर्वांना सुखकारक आहेस व सुखस्वरूपच आहेस, (विभावसुः) तू सत्याच्या प्रकाशाची वर्षा करणारा मेघ आहेस. हे भगवान! अशा (ते) तुझ्या (सुमतौ) उत्कृष्ट ज्ञानात व परस्पर प्रातीमध्ये आम्ही स्थिर व्हावे. ॥३०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अग्ने ! हि=यस्माद्धेतोः । त्वम् । वसुः=समस्तधनो वासयिता वा असि । पुनः । वसुपतिः=धनपतिः । पुनः । विभावसुः=दीप्तिधनोऽसि । कमिति निश्चयः । अतः हे देव ! ते=तव । सुमतौ=कल्याण्यां मतौ । अपि । वयं स्याम=भवेम ॥२४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगति ईश ! (हि) जिस कारण तू (वसुः) उपासकों का धनस्वरूप वा वास देनेवाला है (वसुपतिः) धनपति है और (विभावसुः+असि) प्रकाशमय धनवाला है, अतः हे भगवन् ! क्या हम उपासक (ते) तेरी (सुमतौ+अपि) कल्याणमयी बुद्धि में (स्याम) निवास कर सकते हैं । अर्थात् क्या हम उपासक तेरी कृपा प्राप्त कर सकते हैं ॥२४ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर महा धनपति है, वह परमोदार है, उसका धन प्रकाशरूप है, अतः हम मनुष्यों को उचित है कि अपने शुद्धाचरण से और सत्यता से उसकी कृपा और आशीर्वाद के पात्र बनें ॥२४ ॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे परमात्मन्! आप (वसुः)  सबको अपने में बसानेवाले और सबमें आप बसनेवाले हो तथा (वसुपति:)  पृथिव्यादि वासहेतुभूतों के पति हो। (अग्ने कमसि) हे अग्ने ! विज्ञानानन्दस्वप्रकाशस्वरूप! आप ही सबके सुखकारक और सुखस्वरूप हो तथा (विभावसुः) सत्यस्वप्रकाशकैधनमय हो। हे भगवन् ! ऐसे जो आप, उन (ते) आपकी (सुमतौ) अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञान और परस्पर प्रीति में हम लोग (अपि स्याम)  स्थिर हों ॥ ३० ॥ 

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    विषय

    सर्वपालक प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! तू ( विभा-वसुः ) दीप्तियुक्त, दीप्ति से जगत् भर को आच्छादित करने हारा, ( वसुः ) सर्वव्यापक और ( वसु-पतिः ) समस्त वसु, जीवों का पालक, ( असि ) है । हम भी ( ते सुमतौ स्याम ) तेरी शुभ मति और उत्तम ज्ञान में रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'वसु, वसुपति, विभावसु' वसु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! आप (वसुः) = सबको बसानेवाले हैं। (वसुपतिः) = सब धनों के स्वामी है। (हि) = निश्चय से (कं) = आनन्दमय (असि) = हैं। (विभावसुः) = दीप्ति रूप धनवाले हैं। [२] हम (ते) = आपकी (सुमतौ) = कल्याणी मति में अपि स्याम ही हों। हमारे पर प्रभु का सदा अनुग्रह बना रहे।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु सबको बसानेवाले, सब धनों के स्वामी, दीप्ति रूप धनवाले हैं। उस आनन्दमय प्रभु की कल्याणी मति में हमारा निवास हो ।

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे परमात्मन् ! तपाईं वसु= सबैलाई आफु मा बसाउने र सबैमा आफु बसने हुनुहुन्छ तथा वसुपतिः = पृथिव्यादि वासहेतुभूत हरु का पति हुनुहुन्छ । अग्ने कमसि = हे अग्ने ! विज्ञानानन्दप्रकाश स्वरूप ! तपाईं नै सबैका सुख कारक र सुखस्वरूप हुनुहुन्छ तथा विभावसुः = सत्यस्वप्रकाशकैधनमय हुनुहुन्छ । हे भगवन्! एस्तो जुन तपाईं हुनुहुन्छ ते= तपाईंको सुमतौ = अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञान र परस्पर प्रीति मा हामीहरु अपि स्याम = स्थिर हौं ॥३०॥
     

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