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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 27
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - यवमध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    य॒ज्ञानां॑ र॒थ्ये॑ व॒यं ति॒ग्मज॑म्भाय वी॒ळवे॑ । स्तोमै॑रिषेमा॒ग्नये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञाना॑म् । र॒थ्ये॑ । व॒यम् । ति॒ग्मऽज॑म्भाय । वी॒ळवे॑ । स्तोमैः॑ । इ॒षे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञानां रथ्ये वयं तिग्मजम्भाय वीळवे । स्तोमैरिषेमाग्नये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञानाम् । रथ्ये । वयम् । तिग्मऽजम्भाय । वीळवे । स्तोमैः । इषेम । अग्नये ॥ ८.४४.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 41; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With songs of adoration we love to celebrate and exalt the glory of Agni and reach him who, like a charioteer, is the foremost guide and high priest of all yajnas of creation, evolution and development, rolls his mighty jaws of justice and judgement, and is the highest, omnipotent, power.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याच्या कृपेने लोकांमध्ये शुभ कर्माची प्रवृत्ती होते व यज्ञ इत्यादींची पूर्ती होते. सूर्य इत्यादी तेज व प्रताप ज्याचे प्रत्यक्ष आहेत त्याला आम्ही उपासकांनी शुद्ध आचार व प्रार्थना याद्वारे प्राप्त करावे. ॥२७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    वयमुपासकाः । यज्ञानां=शुभकर्मणाम् । रथ्ये=नेत्रे= नायकाय । तिग्मजम्भाय=तीव्रतेजस्काय । वीळवे= महाशक्तये । अग्नये=महेश्वराय । स्तोमैः=स्तोत्रैः । इषेम=इच्छेम प्राप्तुम् ॥२७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वयम्) हम उपासकगण (अग्नये) सर्वाधार सर्वगत ईश्वर को (स्तोमैः) स्तोत्रों से स्तोत्ररूप उपहारों के द्वारा (इषेम) प्राप्त करने की इच्छा करें, जो ईश (यज्ञानाम्+रथ्ये) हमारे सकल शुभ कर्मों के नायक चालक हैं, (तिग्मजम्भाय) जिसके तेज और प्रताप अत्यन्त तीव्र हैं, जो (वीळवे) सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥२७ ॥

    भावार्थ

    जिसकी कृपा से लोगों की शुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है और यज्ञादिकों की समाप्ति होती है, जिसके सूर्य्यादिक तेज और प्रताप प्रत्यक्ष हैं, उसको हम उपासक शुद्धाचारों और प्रार्थनाओं के द्वारा प्राप्त होवें ॥२७ ॥

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    विषय

    स्तुत्य प्रभु।

    भावार्थ

    ( यज्ञानां ) यज्ञों के बीच ( रथ्ये ) रथी के समान नायक, ( तिग्म-जम्भाय ) तीक्ष्ण वशकारी साधनों से सम्पन्न, ( वीडवे ) बलवान्, ( अग्नये ) अग्निवत् तेजस्वी प्रभु को हम ( स्तोमैः इषेम ) स्तुति योग्य वचनों से सदा चाहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'यज्ञों के रथी' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (वयं) = हम (स्तोमैः) = स्तोत्रों के द्वारा (अग्नये) = उस अग्रणी प्रभु के लिए (इषेम) = जानेवाले हों । स्तोत्रों को करते हुए उन स्तुत्यगुणों के अपने में धारण करते हुए प्रभु के समीप और समीप होने चलें। [२] जो प्रभु (यज्ञानां रथ्ये) = यज्ञों के प्रणेता हैं। (तिग्मजम्भाय) = तीक्ष्ण दंष्ट्राओं वाले हैं- तीक्ष्ण वशकारी साधनों से सम्पन्न हैं। (वीडवे) = बलवान् हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- यज्ञों के प्रणेता प्रभु का स्तवन करते हुए हम भी यज्ञशील हों और प्रभु के समीप और अधिक समीप होते जाएँ।

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