ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
अ॒ग्निं दू॒तं पु॒रो द॑धे हव्य॒वाह॒मुप॑ ब्रुवे । दे॒वाँ आ सा॑दयादि॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । दू॒तम् । पु॒रः । द॒धे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । दे॒वान् । आ । सा॒द॒या॒त् । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । देवाँ आ सादयादिह ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । दूतम् । पुरः । दधे । हव्यऽवाहम् । उप । ब्रुवे । देवान् । आ । सादयात् । इह ॥ ८.४४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
I place the divine fire in front of me, speak closely to the sacred bearer of oblations and pray that it may bring the divinities with divine blessings here to join us.
मराठी (1)
भावार्थ
ध्यान योगाच्या वेळी मनात ईश्वराला स्थापित करून इंद्रियांना वशमध्ये ठेवून स्तुती प्रार्थना करावी.
टिप्पणी
विशेष - वेदामध्ये हे वैचित्र्य आहे की, ज्या शब्दाद्वारे ईश्वराची स्तुती प्रार्थना करतो तो शब्द जर भौतिकमध्ये लागू पडला तर त्याचे पर्यायही ईश्वरासाठी प्रयुक्त होतात; परंतु अशा स्थानी यौगिक अर्थ घेतला पाहिजे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
यथेश्वरोऽस्माकं सखा बन्धुः भ्राता पिता माता जनयिताऽस्ति, तथैव स दूतोऽप्यस्तीति बोध्यम् । अहमुपासकः । उपासनासमये । दूतं=निखिलदुःखहरं दूतमिव जीवात्मनः सन्देशहरम् । अग्निं=सर्वाधारमीशम् । पुरोदधे=मनसि पुरस्करोमि=स्थापयामि । स्थापयित्वा । हव्यवाहम्=स्तोत्ररूपस्य हव्यस्य वाहकम् । तम् । उपब्रुवे=मनसा समीपं गत्वा स्तौमि च । सः परमात्मा इह ध्यानयोगे । देवान्=सर्वाणि इन्द्रियाणि । आसादयात्=आसमन्तात् प्रसादयतु स्थिरीकरोत्वित्यर्थः ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
जैसे ईश्वर हम लोगों का सखा, बन्धु, भ्राता, पिता-माता और जनयिता कहलाता है, वैसा ही वह दूत भी है । वह आत्मा को सन्देश देता है । अथवा दूत के समान हितकारी है अथवा दूत शब्द का अर्थ निखिल दुःखहारी भी होता है । अथ ऋगर्थः−मैं उपासक (दूतम्) दूत (अग्निम्) और सर्वाधार ईश को (पुरोदधे) आगे रखता हूँ अर्थात् मन में स्थापित करता हूँ और स्थापित करके (हव्यवाहम्) उस स्तोत्ररूप हव्यग्राहक परमात्मा की (उपब्रुवे) स्तुति करता हूँ, वह (इह) इस ध्यानयोग में (देवान्) सर्व इन्द्रियों को (आ) अच्छे प्रकार (सादयात्) प्रसन्न करे अर्थात् स्थिर करे ॥३ ॥
भावार्थ
ध्यान-योगसमय मन में ईश्वर को स्थापित कर इन्द्रियों को वश में ला स्तुति प्रार्थना करे ॥३ ॥
टिप्पणी
वेद में यह एक विचित्रता है कि जिस शब्द द्वारा ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करते हैं, वह शब्द यदि भौतिक में भी घटता है, तो उसके पर्य्याय भी ईश्वर के लिये प्रयुक्त होते हैं, परन्तु ऐसे स्थलों में यौगिक अर्थ करके घटाना चाहिये ॥३ ॥
विषय
अग्नि - परिचर्या के तुल्य गुरु और प्रभु की उपासना।
भावार्थ
जिस प्रकार कोई (अग्निं दूतं पुरो धत्ते) तप्त अग्नि को आगे स्थापित करता है और अग्नि ( देवान् आसादयति ) प्रकाशक किरणों को प्रदान करता है, उसी प्रकार मैं ( पुरः ) अपने समक्ष ( दूतं ) स्तुति योग्य ( हव्य-वाहम् ) स्तुत्य गुणों के धारक, ज्ञानप्रकाशक गुरु और प्रभु को धारण करूं और (उप ब्रुवे) उसकी स्तुति करूं। वह (इह ) इस अन्तःकरण में ( देवान् आसादयत् ) शुभ गुणों, ज्ञानों को प्राप्त करावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'दूत- हव्यवाट्' प्रभु
पदार्थ
[१] मैं (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (दूतं) = ज्ञानसन्देश को प्राप्त करानेवाले के रूप में (पुरः दधे) = सदा सामने स्थापित करता हूँ-प्रभु को कभी विस्मृत नहीं करता। (हव्यवाहम्) = सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले प्रभु से मैं (उपब्रुवे) = प्रार्थना करता हूँ-सब हव्यों को प्राप्त कराने के लिए प्रभु को पुकारता हूँ। [२] ये प्रभु कृपा करके (इह) = इस जीवन में (देवान्) = सब दिव्य गुणों को (आसादयात्) = बिठाएँ- स्थापित करें।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु ज्ञानसन्देश को प्राप्त करानेवाले हैं, प्रभु ही सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु के अनुग्रह से ही हमारा जीवन दिव्यगुणसम्पन्न बनता है ।
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