Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 30
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पु॒राग्ने॑ दुरि॒तेभ्य॑: पु॒रा मृ॒ध्रेभ्य॑: कवे । प्र ण॒ आयु॑र्वसो तिर ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रा । अ॒ग्ने॒ । दुः॒ऽइ॒तेभ्यः॑ । पु॒रा । मृ॒ध्रेभ्यः॑ । क॒वे॒ । प्र । नः॒ । आयुः॑ । व॒सो॒ इति॑ । ति॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुराग्ने दुरितेभ्य: पुरा मृध्रेभ्य: कवे । प्र ण आयुर्वसो तिर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरा । अग्ने । दुःऽइतेभ्यः । पुरा । मृध्रेभ्यः । कवे । प्र । नः । आयुः । वसो इति । तिर ॥ ८.४४.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 30
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 41; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, cosmic poet and creator, haven and home of humanity, before the onslaught of sin, before the bloodshed of violence, pray exalt our life to fullness and completion with success.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    शेवटी परमेश्वराचा आशीर्वाद मागितला जातो. पाप व शत्रूपासून बचावाचे साधन ईश्वराला शरण जाणे होय. त्याच्यावर विश्वास व श्रद्धा. सर्वात महत्त्वाची गोष्ट म्हणजे त्याच्या आज्ञेचे पालन करणे होय. ॥३०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे वसो=वासक ! अग्ने=सर्वगतदेव ! हे कवे=महाज्ञानिन् ! दुरितेभ्यः=पापेभ्यः । पुरा=प्रागेव । पुनः । मृध्रेभ्यः=हिंसकेभ्यः । पुरा । यदा दुरितानि हिंसकाश्चास्मान् हिंसितुमुद्युञ्जते । ततः प्रागेवेत्यर्थः । नोऽस्माकमायुः । प्र तिर=प्रवर्धय ॥३० ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (कवे) हे महाकवीश्वर ! (वसो) हे वासदाता (अग्ने) परमात्मन् ! (दुरितेभ्यः) पापों के आगमन के (पुरा) पूर्व ही और (मृध्रेभ्यः) हिंसकों के आगमन के (पुरा) पूर्व ही (नः) हमारी (आयुः) आयु को (प्रतिर) बढ़ाओ ॥३० ॥

    भावार्थ

    अन्त में आशीर्वाद माँगते हैं । पापों और शत्रुओं से बचने के लिये केवल ईश्वर की शरण है, उसमें श्रद्धा और विश्वास और सबसे बढ़कर उसी की आज्ञा पर चलना है, इति ॥३० ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मोक्ष की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे ( कवे ) क्रान्तदर्शिन् ! हे ( वयो ) सबमें बसने वाले ! सबको बसाने हारे ! ( दुरितेभ्यः ) दुष्टाचारों और (मृध्रेभ्यः ) हिंसकों के भी ( पुरा ) पूर्व ही ( नः आयुः प्र तिर ) हमारे जीवनों को बढ़ा। इत्येकचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दुरितों व मृधों से बचाव

    पदार्थ

    [१] हे (वसो) = हमारे निवासों को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! आप (नः आयुः) = हमारे जीवन को (प्रतिर) = बढ़ाइए। [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (दुरितेभ्यः पुरा) = पूर्व इसके कि हम दुरितों में चले जाएँ आप हमारे जीवन को उन्नत करें। इसी प्रकार हे (कवे) = क्रान्तदर्शिन् प्रभो ! (मृध्रेभ्यः पुरा) = पूर्व इसके कि हम ङ्क्षहसक काम-क्रोध आदि शत्रुओं का शिकार हो जाएँ, आप हमारे आयुष्य को बढ़ाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के कृपापात्र बनकर हम दुरितों व मृध्रों [हिंसक शत्रुओं] का शिकार न होकर दीर्घजीवनवाले बनें। इस प्रकार प्रभुरक्षण में हम 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों को दीप्त करके 'त्रिशोक' बनें (शुच दीप्तौ) 'काण्व' समझदार हों। यह 'त्रिशोक काण्व' इन्द्र का उपासन करता है-

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top