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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॑ त्वा जु॒ह्वो॒३॒॑ मम॑ घृ॒ताची॑र्यन्तु हर्यत । अग्ने॑ ह॒व्या जु॑षस्व नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । त्वा॒ । जु॒ह्वः॑ । मम॑ । घृ॒ताचीः॑ । य॒न्तु॒ । ह॒र्य॒त॒ । अग्ने॑ । ह॒व्या । जु॒ष॒स्व॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा जुह्वो३ मम घृताचीर्यन्तु हर्यत । अग्ने हव्या जुषस्व नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । जुह्वः । मम । घृताचीः । यन्तु । हर्यत । अग्ने । हव्या । जुषस्व । नः ॥ ८.४४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of beauty and bliss, let my ladles overflowing with ghrta rise and move close to you. Pray accept and enjoy our oblations and our songs.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही असे शुद्ध कर्म करा की, ज्यामुळे परमात्मा प्रसन्न होईल. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यस्य सर्वाणि कर्माणि तत्प्रीत्यै भवन्त्विति शिक्षते ।

    पदार्थः

    हे हर्यत=भक्तजनान् कामयमान ! अग्ने=सर्वशक्ते ईश ! घृताचीः=घृतमञ्चन्त्यः । मम । जुह्वः=जुहूप्रभृतीनि पूजोपकरणानि । त्वा=त्वाम् । उपयन्तु=प्राप्नुवन्तु । तवैव प्रीत्यर्थं तानि वस्तूनि भवन्त्वित्यर्थः । हे अग्ने ! नोऽस्माकम् । हव्या=हव्यानि स्तोत्राणि । त्वं जुषस्व=गृहाण ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के सर्व कर्म उसकी प्रीति के लिये हों, यह इससे सिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (हर्यत) हे भक्तजनों के मङ्गलाभिलाषिन् ! (अग्ने) परमदेव ! (घृताचीः) घृतसंयुक्त (मम) मेरे (जुह्वः) जुहू स्रुवा उपभृति आदि हवनोपकरण भी (त्वा) आपकी प्रीति के लिये (उप+यन्तु) होवें । हे ईश ! (नः) हमारे (हव्या) स्तोत्रों को तू (जुषस्व) ग्रहण कर ॥५ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! तुम वैसे शुद्ध कर्म करो, जिससे परमात्मा प्रसन्न हो ॥५ ॥

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    विषय

    अग्नि की प्रभु से श्लिष्ट समताएं।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (घृताचीः जुह्वः अग्निं यन्ति) घृत वाली जुहू नाम स्रुचाएं यज्ञ-काल में अग्नि को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) विद्वन् ! प्रभो ! हे ( हर्यत ) कान्तियुक्त ! उत्तम कामनावान् ! ( मम ) मेरी ( घृताचीः ) स्नेहयुक्त ( जुह्वः ) वाणियां (त्वा उप यन्तु ) तुझे प्राप्त हों ! हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! तू ( नः हव्या ) हमारे दिये अन्नादि दातव्य पदार्थों को ( जुषस्व ) प्रेमपूर्वक स्वीकार कर। इति षट्त्रिंशो वर्गः।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्तवन व हव्य पदार्थों का सेवन

    पदार्थ

    [१] हे (हर्यत) = कमनीय प्रभो ! (मम) = मेरी (घृताची:) = ज्ञानदीप्ति को प्राप्त होनेवाली (जुह्वः) = वाणियाँ (त्वा उपयन्तु) = आपको समीपता से प्राप्त हों। [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (हव्या) = हव्य पदार्थों को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कराइए। हम हव्य पदार्थों का ही सेवन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का ज्ञानदीप्तवाणियों द्वारा स्तवन करें और हव्य पदार्थों का ही सेवन करें।

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