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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 6
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    म॒न्द्रं होता॑रमृ॒त्विजं॑ चि॒त्रभा॑नुं वि॒भाव॑सुम् । अ॒ग्निमी॑ळे॒ स उ॑ श्रवत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒न्द्रम् । होता॑रम् । ऋ॒त्विज॑म् । चि॒त्रऽभा॑नुम् । वि॒भाऽव॑सुम् । अ॒ग्निम् । ई॒ळे॒ । सः । ऊँ॒ इति॑ । श्र॒व॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्द्रं होतारमृत्विजं चित्रभानुं विभावसुम् । अग्निमीळे स उ श्रवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्द्रम् । होतारम् । ऋत्विजम् । चित्रऽभानुम् । विभाऽवसुम् । अग्निम् । ईळे । सः । ऊँ इति । श्रवत् ॥ ८.४४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I adore Agni, lord of light and fire, blissful, generous yajaka, high priest of regular seasonal yajna, wondrous illustrious, blazing brilliant lord of wealth and honour, and I pray may the lord listen and bless.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो तुमच्या गोष्टी ऐकतो व पूर्ण करतो त्याचीच उपासना करा. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अहमुपासकः । अग्निमीशमीळे=स्तौमि । यतः । स उ=स एव मम स्तोत्राणि । श्रवत्=शृणोति । कीदृशमग्निम् । मन्द्रम्=मादयितारम् आनन्दयितारम् । होतारम्=दातारम् । ऋत्विजम्=ऋतौ-२ यजमानं=संगतिकारकम् । चित्रभानुम्=आश्चर्य्यतेजस्कम् । पुनः । विभावसुम् विभावयितारं विभासयितारं वा ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    मैं उपासक (अग्निम्+ईळे) अग्निवाच्य परमात्मा की स्तुति करता हूँ, क्योंकि (सः+उ) वही (श्रवत्) मेरे स्तोत्र और अभीष्टों को सुनता है, जो (मन्द्रम्) आनन्दप्रद (होतारम्) दाता (ऋत्विजम्) ऋतु-२ में सर्व पदार्थों को इकट्ठा करनेवाला (चित्रभानुम्) आश्चर्य्य तेजोयुक्त और (विभावसुम्) सबको प्रकाशित करनेवाला और आदर देनेवाला है । वही एक देव उपास्य है ॥६ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! उसी की उपासना करो, जो तुम्हारी बातों को सुनता और पूर्ण करता है ॥६ ॥

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    विषय

    स्तुत्य अग्नि, विद्वान् और प्रभु।

    भावार्थ

    मैं (मन्द्रं) सुखजनक, ( होतारम् ) सुखों और ज्ञानों के देने वाले, (ऋत्विजं) ऋतु २ में यज्ञ करने वाले, (चित्र-भानुं) अद्भुत, सौम्य कान्तियुक्त ( विभा-वसुम् ) दीप्तियुक्त धन के स्वामी, (अग्निम् ईडे) प्रमुख तेजस्वी पुरुष की स्तुति करता हूं, उसको चाहता हूं। ( सः उ श्रवत् ) वह ही हमारी प्रार्थना श्रवण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'मन्द्र-विभावसु' प्रभु

    पदार्थ

    [१] मैं (अग्निं) = उन अग्रणी प्रभु को (ईडे) = उपासित करता हूँ। (सः उ) = वे ही (श्रवत्) = मेरी प्रार्थना को सुनते हैं। [२] वे प्रभु (मन्द्रं) = आनन्दमय हैं। (होतारम्) - सब कुछ देनेवाले हैं। (ऋत्विजम्) = हमारे जीवन यज्ञों के ऋत्विक् हैं। (चित्रभानुं) = अद्भुत दीप्तिवाले हैं। (विभावसुम्) = ज्ञानदीप्तिरूप धनवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभु का आराधन हमें 'आनन्द व ज्ञानधन' को प्राप्त कराता है। हमारी सब प्रार्थनाएँ प्रभुद्वारा सुनी जाती हैं।

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