ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 7
प्र॒त्नं होता॑र॒मीड्यं॒ जुष्ट॑म॒ग्निं क॒विक्र॑तुम् । अ॒ध्व॒राणा॑मभि॒श्रिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्नम् । होता॑रम् । ईड्य॑म् । जुष्ट॑म् । अ॒ग्निम् । क॒विऽक्र॑तुम् । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अ॒भि॒ऽश्रिय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्नं होतारमीड्यं जुष्टमग्निं कविक्रतुम् । अध्वराणामभिश्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्नम् । होतारम् । ईड्यम् । जुष्टम् । अग्निम् । कविऽक्रतुम् । अध्वराणाम् । अभिऽश्रियम् ॥ ८.४४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
I adore Agni, ancient and eternal, generous giver, worthy of reverence and celebration, loved and worshipped, poetic visionary of holy action and gracious performer of yajnic projects of love and non-violence for corporate development.
मराठी (1)
भावार्थ
तोच ईश पूज्य आहे. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अहमग्निमीळे इति पूर्ववाक्येन सम्बन्धः । कीदृशम् । प्रत्नम्=पुराणं शाश्वतम् । होतारं=दातारम् । ईड्यं=स्तुत्यम् । जुष्टं=सर्वसेवितम् । कविक्रतुम्=कविकर्माणम् । पुनः । अध्वराणाम्=सर्वेषां शुभकर्मणामभिश्रियम्=अभितः शोभाप्रदम् ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
मैं उस अग्निवाच्य ईश्वर की स्तुति करता हूँ, जो (प्रत्नम्) पुराण और शाश्वत है (होतारम्) दाता (ईड्यम्) स्तुत्य (जुष्टम्) सेवित (कविक्रतुम्) महाकवीश्वर और (अध्वराणाम्) सकल शुभकर्मों का (अभिश्रियम्) सब तरह से शोभाप्रद है ॥७ ॥
भावार्थ
वही ईश पूज्य है, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥७ ॥
विषय
स्तुत्य अग्नि, विद्वान् और प्रभु।
भावार्थ
मैं ( प्रत्नं ) पुराण, नित्य, सर्वश्रेष्ठ, ( होतारम् ) ज्ञानों, ऐश्वर्यों के देने वाले, ( ईडयं ) स्तुत्य, ( जुष्टं ) सेवा करने योग्य, ( कविक्रतुम् ) दूरदर्शी विद्वान् के समान ज्ञान और कर्म से युक्त, विद्वानों को भी ज्ञान देने वाले, ( अध्वराणां ) यज्ञों के आश्रय, देवपूजा, सत्कार आदि के सत्पात्र की स्तुति करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अध्वराणामभिश्रियम्
पदार्थ
[१] मैं उस प्रभु का स्तवन करता हूँ जो (प्रत्नं) = सनातन हैं- सदा से हैं, पुराण पुरुष हैं। (होतारं) = सब कुछ देनेवाले हैं। (ईड्यं) = स्तुति के योग्य हैं। (जुष्टं) = प्रीतिपूर्वक सेवित होते हैं। (अग्निम्) = अग्रणी हैं। (कविक्रतुम्) [कविश्चासौ क्रतुञ्च ] = क्रान्तदर्शी व शक्ति के पुञ्ज हैं। [२] उस प्रभु का मैं स्तवन करता हूँ जो (अध्वराणाम् अभिश्रियम्) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों के अन्दर निवास करनेवाले हैं। जहाँ यज्ञ हैं, वहीं प्रभु का वास है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम उस पुराण पुरुष का उपासन करें। वे प्रभु ही सब कुछ देनेवाले, स्तुत्य, सेवनीय, अग्रणी, क्रान्तदर्शी व शक्तिपुञ्ज हैं। प्रभु का निवास वहीं होता है, जहाँ यज्ञों का उपक्रम हो ।
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