ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 17
उ॒त त्वाब॑धिरं व॒यं श्रुत्क॑र्णं॒ सन्त॑मू॒तये॑ । दू॒रादि॒ह ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्वा॒ । अब॑धिरम् । व॒यम् । श्रुत्ऽक॑र्णम् । सन्त॑म् । ऊ॒तये॑ । दू॒रात् । इ॒ह । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्वाबधिरं वयं श्रुत्कर्णं सन्तमूतये । दूरादिह हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठउत । त्वा । अबधिरम् । वयम् । श्रुत्ऽकर्णम् । सन्तम् । ऊतये । दूरात् । इह । हवामहे ॥ ८.४५.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 45; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 45; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And from afar we invoke and call upon you for protection and progress. You are everywhere, your ears are sensitive and you are eager to hear the call of the seeker.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही निश्चय करा की तो बधिर नाही. तो आमचे वचन ऐकतो. तो प्रार्थनेकडे लक्ष देतो व आवश्यकता पूर्ण करतो. त्यासाठी त्याचीच स्तुती करा. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
उत=अपि च वयमुपासकाः । अबधिरम्=अस्माकमभीष्टं श्रोतुं सदा अवहितम् । अतएव श्रुत्कर्णम्=प्रार्थनाश्रवणम् । पुनः । सन्तम्=सर्वत्र विद्यमानम् । ऊतये=रक्षायै । त्वा=त्वामेव । इह=स्वस्वगृहे । दूरात् । हवामहे ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(उत) और (वयम्) हम उपासक (दूरात्) दूर देश से (इह) अपने-२ गृह और शुभ कर्म में (त्वाम्) तुझको (हवामहे) बुलाते हैं, जो तू (अबधिरम्) हमारे अभीष्ट सुनने के लिये सदा सावधान है और इसी कारण (श्रुत्कर्णम्) श्रवण पर (सन्तम्) सर्वत्र विद्यमान है, उस तुझको (ऊतये) अपनी रक्षा के लिये बुलाते हैं ॥१७ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! तुम्हें निश्चय हो कि वह बधिर नहीं है, वह हमारा वचन सुनता है । वह प्रार्थना पर ध्यान देता है और आवश्यकता को पूर्ण करता है, अतः उसी की स्तुति प्रार्थना करो ॥१७ ॥
विषय
उस से नाना प्रार्थनाएं, शरणयाचना।
भावार्थ
( उत ) और ( वयं ) हम लोग ( अबधिरम् ) श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति से सम्पन्न (श्रुत्-कर्ण) श्रवण करने में समर्थ, बहुश्रुत एवं वैसे साधनों सहायकों वाले ( सन्तं ) सज्जन तुझ को हम ( दूराद् ) दूर रहते भी ( ऊतये ) रक्षार्थ वहां से ( इह ) यहां ( हवामहे ) बुलाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
अबधिरं श्रुत्कर्णम्
पदार्थ
[१] (उत) = और (वयं) = हम (दूरात्) = दूर से ही आपके उपासक न होते हुए भी (इह) = यहाँ इस जीवन में (ऊतये) = रक्षण के लिए (त्वा) = आपको (हवामहे) पुकारते हैं। [२] उन आपको हम पुकारते हैं जो (अबधिरं) = बधिर नहीं हैं। (श्रुत्कर्णम्) = श्रवण पर कर्णोंवाले हैं। जिनके कान सदा सुनने में लगे हैं। (सन्तम्) = जो श्रेष्ठ हैं।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु की प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती। यह बहरे कानों पर नहीं पड़ती।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal