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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 35
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    बि॒भया॒ हि त्वाव॑त उ॒ग्राद॑भिप्रभ॒ङ्गिण॑: । द॒स्माद॒हमृ॑ती॒षह॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बि॒भय॑ । हि । त्वाऽव॑तः । उ॒ग्रात् । अ॒भि॒ऽप्र॒भ॒ङ्गिनः॑ । द॒स्मात् । अ॒हम् । ऋ॒ति॒ऽसहः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बिभया हि त्वावत उग्रादभिप्रभङ्गिण: । दस्मादहमृतीषह: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बिभय । हि । त्वाऽवतः । उग्रात् । अभिऽप्रभङ्गिनः । दस्मात् । अहम् । ऋतिऽसहः ॥ ८.४५.३५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 35
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 48; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I would feel fear and awe for a person like you, illustrious, destroyer of the evil, magnificent and scourge of the challengers of truth and law.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या पूर्वी प्रार्थना केलेली आहे की, अपराध झाल्यावरही तू आम्हाला दंड देऊ नकोस. याबाबतीत उपासक मनात म्हणतो की, हे ईश! मी जाणून बुजून अपराध करणार नाही. मी तुला जाणतो की, तू न्यायाधीश आहेस. पापी तुझ्याजवळ राहू शकत नाही. त्यासाठी तुला मी घाबरतो. तुझ्या नियमाप्रमाणे वागतो. तरीही अपराध घडल्यास क्षमा कर. ॥३५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे ईश ! त्वावतः=त्वत्सदृशात् न्यायाधीशात् । अहम् । सदा । हि=निश्चयेन । बिभय=बिभेमि । कीदृशात् । उग्रात्=भयङ्करात् । पुनः । अभिप्रभङ्गिणः=अभिप्रहर्त्तुः । पुनः । दस्मात्=पापानामुपक्षयितुः । पुनः । ऋतीसहः=सर्वान् उपद्रवान् अभिभवतः ॥३५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे न्यायाधीश जगदीश ! (त्वावतः) आपके समान न्यायवान् से (अहम्) मैं सदा (हि) निःसन्देह (बिभय) डरता रहता हूँ । हे भगवन् ! जिस कारण आप (उग्रात्) पापियों के प्रति महा भयङ्कर हैं, (अभिप्रभङ्गिणः) चारों तरफ से दुष्टों को भग्न करनेवाले हैं, (दस्मात्) पापियों को दूर फेंकनेवाले हैं और (ऋतीसहः) निखिल विघ्नों को दृढ़ानेवाले हैं, अतः मैं डरता हूँ ॥३५ ॥

    भावार्थ

    पूर्व में प्रार्थना की गई है कि अपराध होने पर भी आप हमको दण्ड न देवें । इसपर उपासक मन में कहता है कि हे ईश मैं जानकर अपराध न करूँगा । आपको मैं जानता हूँ, आप न्यायाधीश हैं । पापी आपके निकट नहीं रह सकता, अतः आपसे मैं सदा डरता हूँ, आपके नियम पर चलता हूँ, तथापि अपराध हो जाए, तो कृपा कर क्षमा करें ॥३५ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    ( ऋति-सहः ) शत्रुकृत हिंसा वा हिंसक सेनाओं को पराजित करने में समर्थ, (अभि-प्र-भङ्गिण:) आगे आये शत्रु को अच्छी प्रकार विनाश कर देने वाले, ( दस्मात् ) शत्रुनाशक, ( उग्रात् त्वावतः ) तुझ जैसे बलवान् प्रचण्ड स्वामी से, ( बिभया हि ) मैं सदा भय करूं। सब पीड़ाओं को मिटा देने से "ऋतीसह" और विश्व भर के सब संकटों को प्रलय करने में समर्थ होने से 'अभि-प्रभङ्गी' है। इत्यष्टाचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    प्रभु से भय

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वावतः) = आप जैसे (उग्रात्) = तेजस्वी, (अभिप्रभङ्गिणः) = शत्रुओं का पराजय करनेवाले, (दस्मात्) = सब बुराइयों का उपक्षय करनेवाले, (ऋतीषहः) = शत्रुकृत हिंसा का मर्षण करनेवाले [कुचल देनेवाले] से (अहं) = मैं (हि) = निश्चय से (बिभया) = भयभीत होता हूँ। [२] आप से भयभीत होकर ही तो मैं और सब ओर से निर्भीक हो सकता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से भयभीत होनेवाला ही निर्भीक होता है। प्रभु इसके सब शत्रुओं का नाश करते हैं।

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