ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 41
यद्वी॒ळावि॑न्द्र॒ यत्स्थि॒रे यत्पर्शा॑ने॒ परा॑भृतम् । वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वी॒ळौ । इ॒न्द्र॒ । यत् । स्थि॒रे । यत् । पर्शा॑ने । परा॑ऽभृतम् । वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत् । आ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वीळाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम् । वसु स्पार्हं तदा भर ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वीळौ । इन्द्र । यत् । स्थिरे । यत् । पर्शाने । पराऽभृतम् । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥ ८.४५.४१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 41
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Whatever wanted wealth hidden in solid mountains, concealed in secret and trust worthy sources or covered in caverns and deep in the clouds, bring that out in the open for the society.
मराठी (1)
भावार्थ
पर्वत, समुद्र व पृथ्वीमध्ये पुष्कळ धन गुप्त आहे. वैज्ञानिक ते जाणतात. विद्वानांनी जगाच्या कल्याणासाठी ते धन शोधावे ॥४१॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे सर्वमङ्गलमयदेव ! यद्विज्ञानम् । धनं वा वीळौ=दृढे स्थाने । यत् । स्थिरे=अचले स्थाने । यत् । पर्शाने=विकटे स्थाने । पराभृतम्=स्थापितम् । तत्सर्वं स्पार्हम् । वसु आभर ॥४१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे सर्वमङ्गलमयदेव ! (यत्) जो विज्ञान या धन आपने (वीळौ) सुदृढ़तर स्थान में (यत्) जो धन (स्थिरे) निश्चल स्थान में (यत्) जो (पर्शाने) विकट स्थान में (पराभृतम्) रक्खा है, (तत्) उस सब (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) धन को इस जगत् में (आभर) अच्छी तरह से भर दो ॥४१ ॥
भावार्थ
पर्वत, समुद्र और पृथिवी के अभ्यन्तर में बहुत धन गुप्त हैं । वैज्ञानिक पुरुष इसको जानते हैं । विद्वानों को उचित है कि उस-२ धन को जगत् के कल्याण के लिये प्रकाशित करें ॥४१ ॥
विषय
श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (यत् वसु) जो ऐश्वर्य वा ज्ञान (वीडौ) वलवान् पुरुष में, ( यत् स्थिरे ) जो स्थिर शासक में, ( यत् पर्शाने ) जो विचारशील पुरुष में (स्पाह) अभिलाषा करने योग्य ( पराभृतम् ) विद्यमान है, तू हमें ( तत् आ भर ) वह प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
वीडौ-स्थिरे-पर्शाने
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जो (स्पाईं वसु) = स्पृहणीय धन (वीडौ) = दृढ़ शरीरवाले बलवान् पुरुष में है, (यत्) = जो धन (स्थिरे) = स्थिरवृत्तिवाले, स्थितप्रज्ञ मनुष्य में हैं और (यत्) = जो धन (पर्शाने) = विचारशील पुरुष में (पराभृतम्) = धारण किया गया है, (तद्) = उस धन को (आभर) = हमारे लिए प्राप्त कराइये।
भावार्थ
भावार्थ- हम सबल शरीरवाले, स्थिरवृत्तिवाले व विचारशील बनें और स्पृहणीय धन को प्राप्त करें।
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