ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 12
य ऋ॒ष्वः श्रा॑व॒यत्स॑खा॒ विश्वेत्स वे॑द॒ जनि॑मा पुरुष्टु॒तः । तं विश्वे॒ मानु॑षा यु॒गेन्द्रं॑ हवन्ते तवि॒षं य॒तस्रु॑चः ॥
स्वर सहित पद पाठयः । ऋ॒ष्वः । श्र॒व॒यत्ऽस॑खा । विश्वा॑ । इत् । सः । वे॒द॒ । जनि॑म । पु॒रु॒ऽस्तु॒तः । तम् । विश्वे॑ । मानु॑षा । यु॒गा । इन्द्र॑म् । ह॒व॒न्ते॒ । त॒वि॒षम् । य॒तऽस्रु॑चः ॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋष्वः श्रावयत्सखा विश्वेत्स वेद जनिमा पुरुष्टुतः । तं विश्वे मानुषा युगेन्द्रं हवन्ते तविषं यतस्रुचः ॥
स्वर रहित पद पाठयः । ऋष्वः । श्रवयत्ऽसखा । विश्वा । इत् । सः । वेद । जनिम । पुरुऽस्तुतः । तम् । विश्वे । मानुषा । युगा । इन्द्रम् । हवन्ते । तविषम् । यतऽस्रुचः ॥ ८.४६.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The lord sublime who is universally worshipped is a friend and promoter of the celebrants and knows the origins of the entire forms of existence. That same lord illustrious and refulgent, Indra, the entire people of the world with ladlefuls of ghrta in hand always invoke, adore and worship.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्याची उपासना सर्वजण आदिकालापासून करत आलेले आहेत, आजही त्याचीच उपासना करा. तो चिरंतन ईश्वरच आहे. ॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
य इन्द्रः । ऋष्वः=प्रकृतिषु दृश्योऽस्ति । यश्च । श्रावयत्सखा=उपासकानां परमप्रसिद्धः सखाऽस्ति । स इन्द्रः । विश्वा+इत्=विश्वान्येव सर्वाण्येव । जनिमा=जन्मानि । वेद=जानाति । यश्च । पुरुष्टुतः=बहुस्तुतः । तं तविषं=बलवत्तमम् इन्द्रम् । विश्वे मानुषाः=सर्वे मनुष्याः । पुनः । यतस्रुचः=याज्ञिकाश्च । युगा=कालान् । सर्वेषु समयेषु । हवन्ते=आह्वयन्ति=स्तुवन्ति ॥१२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(यः) जो इन्द्रवाच्य ईश्वर (ऋष्वः) प्रकृतियों में दृश्य है या जो परम दर्शनीय है या महान् है, पुनः जो (श्रावयत्सखा) उपासकों का परम प्रसिद्ध मित्र है, यद्वा जिसके सखा अर्थात् उपासक जिसके यशों को सुनानेवाले हैं, (सः) वह इन्द्र (विश्वा+इत्) सब ही (जनिमा) जन्म (वेद) जानता है अर्थात् सकल प्राणियों का जन्म जानता है, पुनः वह (पुरुष्टुतः) बहुतों से स्तुत है । (तम्+तविषम्) उस महाबल (इन्द्रम्) ईश्वर की (विश्वे+मानुषाः) सर्व मनुष्य और (यतस्रुचः) सर्व याज्ञिकगण (युगा) सर्वदा (हवन्ते) स्तुति करते हैं ॥१२ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! जिसकी उपासना सब कोई आदिकाल से करते आए हैं, आज भी उसी की उपासना करो, वह चिरन्तन ईश्वर है ॥१२ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( यः ) जो ( ऋण्वः ) महान् ( सखा ) मित्रवत् स्नेही होकर ( विश्वा इत् ) समस्त ज्ञानों को ( श्रवयत् ) गुरुवत् उपदेश करता है, ( सः ) वह ( इत् ) वही ( पुरुस्तुतः ) बहुतों से स्तुति किया हुआ ( विश्वा जनिमा ) सब उत्पन्न पदार्थों को ( वेद ) जानता है, ( तं इन्द्रं ) उस ऐश्वर्यवान् को ( विश्वे ) समस्त मनुष्य ( यत-स्रुचः ) स्रुच्, जुहू आदि को हाथ में लिये ऋत्विजों के समान ( यत-स्रुचः ) इन्द्रियों को वश कर ( मानुषा युगा ) समस्त मनुष्योपयोगी युगों-वर्षों तक ( तं ) उस ( इन्द्रं ) प्रभु परमेश्वर की ( हवन्ते ) उपासना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
श्रावयत्सखा
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (ऋष्वः) = दर्शनीय- सुन्दर-ही- सुन्दर हैं, (श्रावयत्सखा) = अपने मित्र बननेवालों को ज्ञान को सुनानेवाले हैं। (सः) = वे (पुरुष्टुतः) = बहुतों से स्तुति किये गये प्रभु (विश्वा इत्) = सब ही (जनिमा) = उत्पन्न होनेवालों को (वेद) = जानते हैं। [२] (तं) = उस (इन्द्रं) = परमैश्वर्यशाली (तविषं) = अतिशयेन बलवान् प्रभु को (विश्वे) = सब (यतस्त्रुचः) = संयत वाणीवाले पुरुष (मानुषा युगा) = मानव युगों में, अर्थात् सब कालों में (हवन्ते) = पुकारते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु दर्शनीय-ज्ञान देनेवाले व सर्वज्ञ हैं। वाणी का संयम करनेवाले सभी पुरुष उस प्रभु का सदा आराधन करते हैं।
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