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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ये पा॒तय॑न्ते॒ अज्म॑भिर्गिरी॒णां स्नुभि॑रेषाम् । य॒ज्ञं म॑हि॒ष्वणी॑नां सु॒म्नं तु॑वि॒ष्वणी॑नां॒ प्राध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पा॒तय॑न्ते । अज्म॑ऽभिः । गि॒री॒णाम् । स्नुऽभिः॑ । ए॒षा॒म् । य॒ज्ञम् । म॒हि॒ऽस्वणी॑नाम् । सु॒म्नम् । तु॒वि॒ऽस्वणी॑नाम् । प्र । अ॒ध्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पातयन्ते अज्मभिर्गिरीणां स्नुभिरेषाम् । यज्ञं महिष्वणीनां सुम्नं तुविष्वणीनां प्राध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । पातयन्ते । अज्मऽभिः । गिरीणाम् । स्नुऽभिः । एषाम् । यज्ञम् । महिऽस्वणीनाम् । सुम्नम् । तुविऽस्वणीनाम् । प्र । अध्वरे ॥ ८.४६.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We celebrate the roaring and tempestuous winds, Maruts, who, with their power and force, shake the clouds and streams down these mountains, give us gifts of yajnic well-being and joy in our creative and developmental programmes of love and non-violence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वरीय प्रत्येक पदार्थाचा लाभ होतो हे जाणून त्याला धन्यवाद द्या. ॥१८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अत्रेन्द्रप्रकरणमस्ति । अतस्तस्येन्द्रस्य कृपया । ये मरुत्प्रभृतयो देवाः । अज्मभिः=स्वस्वबलैः । तथा । एषां गिरीणां=पर्वतानाम् । स्नुभिः=प्रस्रवद्भिर्जलैश्च । अस्माकं दुर्भिक्षाद्युपद्रवान् । पातयन्ते=निपातयन्ति । तेषाम् । अध्वरे=संसारकार्याध्वरे । यज्ञं=दानम् । सुम्नं=सुखञ्च वयं प्राप्नुमः । कीदृशानाम्−महिस्वनीनाम्=महाध्वनीनाम् । पुनः । तुविस्वनीनाम्=बहुध्वनीनाम् ॥१८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    यहाँ इन्द्रप्रकरण है । किन्तु इस ऋचा में इन्द्र का वर्णन नहीं, अतः विदित होता है कि यह इन्द्रसम्बन्धी कार्य्य का वर्णन है । पृथिवी, जल, वायु, सूर्य आदि पदार्थ उसी इन्द्र के कार्य हैं । यहाँ दिखलाया जाता है कि इसके कार्यों से लोगों को सुख और दान मिल रहे हैं । यथा−(ये) जो वायु पृथिवी सूर्यादिक देव (अज्मभिः) स्व-स्व शक्तियों से हमारे उपद्रवों को (पातयन्ते) नीचे गिराते हैं और जो देव (एषाम्) इन (गिरीणाम्) मेघों के (स्नुभिः) प्रसरणशील जलों से हमारे दुर्भिक्षादिकों को दूर करते हैं, हे मनुष्यों ! उन देवों का (अध्वरे) संसाररूप यज्ञक्षेत्र में (यज्ञम्) दान और (सुम्नं) सुख हम पाते हैं, (महिस्वनीनाम्) जिनका ध्वनि महान् है, पुनः (तुविस्वनीनाम्) जिनका ध्वनि बहुत है ॥१८ ॥

    भावार्थ

    ईश्वरीय प्रत्येक पदार्थ से लाभ हो रहा है, यह जान उसको धन्यवाद दो ॥१८ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( स्नुभिः ) बहने वाले ( अज्मभिः ) जलों से ( पातयन्ते ) आकाश मार्ग में गमन करते हैं ( एषाम् ) उन ( महिस्वनीनां, तुवि-स्वनीनाम् ) बड़े भारी घोर शब्दकारी, बहुत से शब्द करने वाले मेघों के ( यज्ञं सुम्नं ) दिये जल और सुख को ( अध्वरे ) अविनाशित यज्ञ के आश्रय पर प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार ( ये ) जो शूरवीर वा महास्त्रगण अपने ( स्नुभिः अज्मभिः ) बहते या वर्षा धारावत् निकलते बलयुक्त अस्त्रों से ( पातयन्ते ) वेग से जाते, वे शत्रु बलों को मार गिराते हैं, ( एषां गिरीणां ) इन मेघवत् या पर्वतवत् महान् ( महिस्वनीनाम् ) घोर गर्जनाकारी और ( तुवि-स्वनीनां ) बहुत से ध्वनि करने वाले वीरों और महास्त्रों के ( यज्ञं ) संग लाभ और सुख को हम ( अध्वरे ) यज्ञ और युद्ध में ( प्र ) खूब प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अज्मभिः स्नुभिः

    पदार्थ

    [१] (गिरीणां) = आश्रमों में ज्ञानोपदेश करनेवाले [गृणन्ति] गुरुओं के (अज्मभिः) = जीवनमार्गों से (स्नुभिः) = इनकी स्नायुओं से इनकी तरह उत्साह से (ये) = जो (पातयन्ते) = चलते हैं, (एषां) = इन (महिष्वणीनां) = महनीय ध्वनिवाले ज्ञानियों के (यज्ञं) = संग को [यज संगतिकरणे] हम प्राप्त हों। इनके संग में हम भी तत्त्वदर्शनवाले बनें। [२] इन (तुविष्वणीनां) = महान् ध्वनिवालों के (सुम्नं) = स्तोत्रों को (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में हम प्राप्त करें। स्तोत्रों का ऊँचे-ऊँचे उच्चारण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञानोपदेष्टाओं के मार्गों व उत्साहों का अवलम्बन करते हुए चलें। हम इनके सम्पर्क में आकर प्रभु के स्तोता बनें।

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