ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 7
तस्मि॒न्हि सन्त्यू॒तयो॒ विश्वा॒ अभी॑रव॒: सचा॑ । तमा व॑हन्तु॒ सप्त॑यः पुरू॒वसुं॒ मदा॑य॒ हर॑यः सु॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मि॑न् । हि । सन्ति॑ । ऊ॒तयः॑ । विश्वाः॑ । अभी॑रवः । सचा॑ । तम् । आ । व॒ह॒न्तु॒ । सप्त॑यः । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । मदा॑य । हर॑यः । सु॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मिन्हि सन्त्यूतयो विश्वा अभीरव: सचा । तमा वहन्तु सप्तयः पुरूवसुं मदाय हरयः सुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मिन् । हि । सन्ति । ऊतयः । विश्वाः । अभीरवः । सचा । तम् । आ । वहन्तु । सप्तयः । पुरुऽवसुम् । मदाय । हरयः । सुतम् ॥ ८.४६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In him centre and abide all protections free from fears of the world, integrated. That same lord of world’s wealth and peace, the waves of cosmic energy and vibrations of the mind may, we pray, awaken in our consciousness which is in tune with the lord’s omnipresence for spiritual joy.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्व प्रकारे रक्षण करतो. तो सर्वांचे रक्षण करू शकतो. या जगाद्वारे तो प्रकट होतो. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! तस्मिन्निन्द्रे । विश्वाः=सर्वाः । अभीरवः=निर्भयाः । ऊतयो रक्षाः । सचा सन्ति=सह भवन्ति । तं पुरूवसुम्=बहुधनमिन्द्रम् । सप्तयः= सर्पणशीलाः । हरयः=इमे संसाराः । मदाय=आनन्दाय । सुतम्=यज्ञम् । आवहन्तु ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (तस्मिन्) उस इन्द्रवाच्य जगदीश में (विश्वाः) समस्त (अभीरवः) अकातर=निर्भय (ऊतयः) रक्षाएँ (सचा+सन्ति) समवेत हैं अर्थात् विद्यमान हैं, (तम्) उस (पुरूवसुम्) बहुधन और सर्वधन ईश्वर को (सप्तयः) संचलनशील (हरयः) ये सम्पूर्ण संसार (मदाय) आनन्द के लिये (सुतम्) इस यज्ञ में (आवहन्तु) प्रकाशित करें ॥७ ॥
भावार्थ
परमात्मा में सब रक्षाएँ विद्यमान हैं, इसका आशय यह है कि वही सब रक्षा कर सकता है । उसको ये संसार प्रकट कर सकते हैं ॥७ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( तस्मिन् हि ) उसके अधीन, ( विश्वाः ऊतयः ) समस्त ऐसी रक्षक शक्तियां ( सचा ) सदा समवाय से रहतीं और ( अभीरवः ) भयरहित, अन्य से भय न करने वाली ( सन्ति ) हैं। ( तम् ) उस ( पुरुवसुम् ) बहुत सी बसी प्रजा के अनेक धनों के स्वामी ( सुतम् ) अभिषिक्त पुरुष को ( सप्तयः हरयः ) उसके शरणागत मनुष्य ( मदाय ) आनन्द प्राप्त करने के लिये ( आ वहन्तु ) सारथि को अश्ववत् अपने ऊपर धारण करें, उसे प्रमुख बनावें। अथवा—वे उसे बहुत ऐश्वर्य प्राप्त करावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अभीरवः ऊतयः
पदार्थ
[१] (तस्मिन्) = उस प्रभु में (हि) = निश्चय से (विश्वाः) = सब (अभीरवः) = हमें भीरुता से ऊपर उठानेवाले-कायरता से दूर करनेवाले (ऊतयः) = रक्षण (सचा) = समवेत (सन्ति) = हैं । सब रक्षण प्रभु के आधार से रहते हैं। प्रभु सब रक्षणों को प्राप्त करानेवाले हैं। [२] (तम्) = उस (पुरूवसुं) = पालक व पूरक वसुओंवाले [ऐश्वर्योंवाले] प्रभु को (सप्तयः) = हमारे ये इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमारे लिए प्राप्त कराएँ। ये (हरयः) = इन्द्रियाश्व (सुतम्) = शरीर में उत्पन्न हुए हुए सोम को (मदायः) = हर्ष व उल्लास के लिए [आवहन्तु] = प्राप्त कराएँ। हमारी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी न रहकर अन्तर्मुखी हों-हम प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें, तथा सोम का रक्षण कर पाएँ। इन्द्रियों की बहिर्मुखता वीर्यरक्षण के अनुकूल नहीं होती।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु द्वारा ही सब रक्षण प्राप्त होते हैं। ये रक्षण ही हमें निडर बनाते हैं। हमारी इन्द्रियाँ अन्तर्मुखवृत्तिवाली होकर हमें प्रभुदर्शन के व सोमरक्षण के योग्य बनाएँ।
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