ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 47/ मन्त्र 18
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - आदित्या उषाश्च
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अजै॑ष्मा॒द्यास॑नाम॒ चाभू॒माना॑गसो व॒यम् । उषो॒ यस्मा॑द्दु॒ष्ष्वप्न्या॒दभै॒ष्माप॒ तदु॑च्छत्वने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअजै॑ष्म । अ॒द्य । अस॑नाम । च॒ । अभू॑म । अना॑गसः । व॒यम् । उषः॑ । यस्मा॑त् । दुः॒ऽस्वप्न्या॑त् । अभै॑ष्म । अप॑ । तत् । उ॒च्छ॒तु॒ । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजैष्माद्यासनाम चाभूमानागसो वयम् । उषो यस्माद्दुष्ष्वप्न्यादभैष्माप तदुच्छत्वनेहसो व ऊतय: सुतयो व ऊतय: ॥
स्वर रहित पद पाठअजैष्म । अद्य । असनाम । च । अभूम । अनागसः । वयम् । उषः । यस्मात् । दुःऽस्वप्न्यात् । अभैष्म । अप । तत् । उच्छतु । अनेहसः । वः । ऊतयः । सुऽऊतयः । वः । ऊतयः ॥ ८.४७.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 47; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Adityas, O dawn of light, we have won today, achieved something great, and become free of sin and evil. O dawn, the bad dreams which we fear, pray, throw off. Sinless are your protections, holy your safeguards.
मराठी (1)
भावार्थ
याचा आशय असा की, काल्पनिक वस्तू व केवळ संकल्पाने स्थित पदार्थांची भीती न बाळगता, चिंता न करता माणसांनी संपूर्ण संकटे दूर करण्याचा प्रयत्न करावा. ज्यामुळे आम्ही सुखी होऊन ईश्वर व माणसांच्ेाी सेवा करू शकू. हे माणसांनो! ज्यामुळे हे अपूर्व जीवन सार्थक, सफल, हितकर होईल असा सदैव प्रयत्न करा. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वयं सर्वे मिलित्वा । अद्य=इदानीम् । अजैष्म=सर्वाणि दुःखानि सर्वांश्च क्लेशान् । जयेम अभिभवेम । जित्वा च असनाम=नानाभोगान् संभजेम । तथा वयं सर्वदा । अनागसः=निरपराधा=अपापाश्च । अभूम=भवेम । हे उषः ! यस्माद् दुःस्वप्न्याद् । वयम् । अभैष्म=भीताः स्म । तत्पापम् । अपोच्छतु=अपगच्छतु । अनेहस इत्यादि प्रथममन्त्रभाष्ये द्रष्टव्यम् ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (वयम्) हम सब मिलकर (अद्य) आजकल (अजैष्म) निखिल विघ्नों, दुःखों, क्लेशों और मानसिक आधियों को जीतें । (असनाम) उनको जीतकर नाना भोग विलास (असनाम) प्राप्त करें (च) और (अनागसः) निरपराध और निष्पाप (अभूम) होवें (उषः) हे उषा देवि ! (यस्मात्+दुःस्वप्न्यात्) जिस दुःस्वप्न से (अभैष्म) हम डरें (तत्) वह पापस्वरूप दुःस्वप्न (अप+उच्छतु) दूर होवे ॥१८ ॥
भावार्थ
इसका आशय यह है कि कल्पित अवस्तु और संकल्पमात्र में स्थित पदार्थों से न डरकर और उनकी चिन्ता न करके हम मनुष्य निखिल आपत्तियों को दूर करने की चेष्टा करें, जिससे हम सुखी होकर ईश्वर की और मनुष्यों की सेवा कर सकें । हे मनुष्यों ! जिससे यह अपूर्व जीवन सार्थक सफल और हितकर हो, वैसी चेष्टा सदा किया करो इति ॥१८ ॥
विषय
उन के निष्पाप सुखदायी रक्षा कार्यों का विवरण।
भावार्थ
हम लोग ( अजैष्म ) विजय प्राप्त करें, (असनाम च) दान करें, (वयं अनागसः अभूम) हम निष्पाप, निरपराध होकर रहें। हे (उषः) प्रभात वेला, के समान ज्ञान को देने और पाप को वश करने वाली मातः! ( यस्मात् दुः-स्वप्न्यात् अभैष्म ) हम जिस दुःस्वप्न के दुष्प्रभाव से भय करते हैं ( तद् अप उच्छतु ) वह दूर हो। ( अनेहसः० इत्यादि पूर्ववत् ) इति दशमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित आप्त्य ऋषिः॥ १-१३ आदित्यः। १४-१८ आदित्या उषाश्च देवताः॥ छन्द:—१ जगती। ४, ६—८, १२ निचृज्जगती। २, ३, ५, ९, १३, १६, १८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १०, ११, १७ स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। अष्टादशर्चं सूक्तम्।
विषय
निर्लोभता-संविभाग व निष्पापता
पदार्थ
[१] हे (उषः) = उषे! (अद्य) = आज हम (अजैष्म) = विजयी हुए है। (असनाम) = हमने धनों का लोभ संभजन-संविभाग किया है। (च) = और (वयं) = हम (अनागसः अभूम) = निष्पाप हुए हैं। वस्तुतः से आक्रान्त होकर हम धनों को संविभक्त न कर संगृहीत करते हैं और धन संग्रह में पाप ग्रसित हो जाते हैं। लोक को जीतकर धनों का संविभाग करते हैं और निष्पाप होते हैं। [२] हे (उषः) = उषे ! (यस्मात्) = जिस (दुष्ष्वप्नात्) = अशुभ स्वप्न से (अभैष्म) = हम भयभीत होते हैं, (तत्) = वह (अप उच्छतु) = हमारे से दूर विवासित हो। हे देवो ! (वः) = आपके (ऊतयः) = रक्षण (अनेहसः) = हमें निष्पाप बनाते हैं। (वः) = आपके (ऊतयः) = रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।
भावार्थ
भावार्थ - लोभ पर विजय पाकर हम धनों का संविभाग [दान] करनेवाले हों और निष्पाप हों । अशुभ स्वप्नों से दूर हों। निष्पाप बनने के लिए हम प्रभु का गायन करनेवाले 'प्रगाथ' बनें, बुद्धिमान् ' काण्व' हों। इस प्रकार सोमरक्षण करते हुए हम निष्पाप बनेंगे। अगले सूक्त में इस सोम का ही वर्णन हैं-
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