ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
ऋषि: - प्रगाथः काण्वः
देवता - सोमः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्वा॒दोर॑भक्षि॒ वय॑सः सुमे॒धाः स्वा॒ध्यो॑ वरिवो॒वित्त॑रस्य । विश्वे॒ यं दे॒वा उ॒त मर्त्या॑सो॒ मधु॑ ब्रु॒वन्तो॑ अ॒भि सं॒चर॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दोः । अ॒भ॒क्षि॒ । वय॑सः । सु॒ऽमे॒धाः । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । व॒रि॒वो॒वित्ऽत॑रस्य । विश्वे॑ । यम् । दे॒वाः । उ॒त । मर्त्या॑सः । मधु॑ । ब्रु॒वन्तः॑ । अ॒भि । स॒म्ऽचर॑न्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादोरभक्षि वयसः सुमेधाः स्वाध्यो वरिवोवित्तरस्य । विश्वे यं देवा उत मर्त्यासो मधु ब्रुवन्तो अभि संचरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादोः । अभक्षि । वयसः । सुऽमेधाः । सुऽआध्यः । वरिवोवित्ऽतरस्य । विश्वे । यम् । देवाः । उत । मर्त्यासः । मधु । ब्रुवन्तः । अभि । सम्ऽचरन्ति ॥ ८.४८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(उषः) हे देवि उषे हे प्रकाशप्रदात्रि बुद्धे ! (तदन्नाय) उस अन्नवाले (तदपसे) उस कर्मवाले और (तम् भागम्) उस-उस भाग को (उपसेदुषे) प्राप्त करनेवाले अर्थात् जागरावस्था में जो-जो अन्न, जो जो कर्म और जो-जो भोग विलास करता है, वे ही-२ पदार्थ जिसको स्वप्न में भी प्राप्त हुए हैं, ऐसा जो (त्रिताय) समस्त संसार है और (द्विताय) एक-२ जीव है, उस संसार और उस जीव को (दुःस्वप्न्यम्) जो दुःस्वप्न प्राप्त होता है, उसको (वह) कहीं अन्यत्र लेजा, यह मेरी प्रार्थना है ॥१६॥
भावार्थ - त्रित तीनों लोकों का एक नाम त्रित है, क्योंकि यह नीचे ऊपर और मध्य इन तीनों स्थानों में जो तत=व्याप्त हो, वह त्रित=त्रितत।
टिप्पणी -
द्वित=यह नाम जीव का इसलिये है कि इस लोक और परलोक से सम्बन्ध रखता है अथवा इस शरीर में भी रहता है और इसको छोड़ अन्यत्र भी रहता है, अतः उसको द्वित कहते हैं। अथवा कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय द्वारा इसका कार्य्य होता है, अतः इसको द्वित कहते हैं। मन्त्र का आशय यह है कि दुःस्वप्न से मानसिक और शारीरिक हानि होती है। अतः शरीर को ऐसा नीरोग रक्खे कि वह स्वप्न न देखे। प्रातःकाल का सम्बोधन इसलिये भी वारंबार किया गया है कि उस समय शयन करना उचित नहीं। एवं स्वप्न भी एक आश्चर्य्यजनक मानसिक व्यापार है, अतः इसका वर्णन वेद में पाया जाता है। इति ॥१६॥
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पदार्थः -
हे उषः ! तदन्नाय=तदेवान्नं यस्य तस्मै। जागरावस्थायां यदेवान्नमोदनादिकं भुक्तं पीतं तदेव स्वप्नेऽपि प्राप्तं यस्य स तदन्नः। पुनः। तदपसे=तदेव अपः कर्म यस्य स तदपाः। तस्मै तदपसे=तत्कर्मणे। पुनः। तं भागम्। ते तं भागमंशम्। स्वप्ने। उपसेदुषे=प्राप्तवते। त्रिताय च=संसाराय च समुदाय। द्विताय च=जीवाय च एकैकस्मै। यद् दुःस्वप्न्यं तत् सर्वमन्यत्र। वह=प्रापय ॥१६॥
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Meaning -
An intelligent and dedicated reader of holy literature, I have enjoyed the delicious soma food of higher and holier quality which all divines and mortals of the world enjoy, saying ‘it is honey sweet and savoury’, when they meet in sacred gatherings.
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भावार्थ - जे लोक बुद्धिमान, परिश्रमी, स्वाध्यायरत असतात त्यांनाच मधुर, स्वादिष्ट अन्न प्राप्त होते. जे लोक आळशी, कुकर्मी व असंयमी असतात ते राजा महाराजा महाश्रेष्ठी असतील तरीही त्यांना अन्न मधुर व स्वादिष्ट लागत नाही. कारण त्यांचा क्षुधाग्नी अतिशय मंद होतो, उदराशय बिघडते. परिपाकशक्ती न्यून होते. त्यामुळे त्यांना मधुर पदार्थही अति कटू वाटू लागतो. उत्तमोत्तम भोज्य वस्तूही त्यांना आवडत नाहीत. त्यासाठी असे म्हटलेले आहे की, परिश्रमी, निरोगी व संयमी माणूसच अन्नाचा स्वाद घेऊ शकतो. त्यासाठी असे म्हटलेले आहे की, माणसांनी व श्रेष्ठ माणसांनी असे मांस व अपवित्र अन्न तसेच दर्शनी घृणित दिसणारे अन्न खाऊ नये, ज्यामुळे आरोग्य बिघडेल. ॥१॥
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