ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 25
यथा॑ चि॒त्कण्व॒माव॑तं प्रि॒यमे॑धमुपस्तु॒तम् । अत्रिं॑ शि॒ञ्जार॑मश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । चि॒त् । कण्व॑म् । आव॑तम् । प्रि॒यऽमे॑धम् । उ॒प॒ऽस्तु॒तम् । अत्रि॑म् । शि॒ञ्जार॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा चित्कण्वमावतं प्रियमेधमुपस्तुतम् । अत्रिं शिञ्जारमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । चित् । कण्वम् । आवतम् । प्रियऽमेधम् । उपऽस्तुतम् । अत्रिम् । शिञ्जारम् । अश्विना ॥ ८.५.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 25
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ ताभ्यां रक्षा प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(अश्विना) हे व्यापकौ ! (यथाचित्) यथा हि (कण्वं, उपस्तुतं) उपस्तुतिकर्तारं विद्वांसं (प्रियमेधं) प्रशस्तबुद्धिं (शिञ्जारं, अत्रिं) शब्दायमानं अत्रिम्=“अविद्यमानानि आधिभौतिकाधिदैविकाध्यात्मिकानि दुःखानि यस्यासावत्रिः” तम् (आवतं) रक्षतं तथा मामपि ॥२५॥
विषयः
अनाथरक्षार्थोपदेशः ।
पदार्थः
कण्वादिषु जातावेकवचनम् । हे अश्विना=अश्विनौ राजानौ । यथाचित्=येन प्रकारेण खलु । युवाम् । कण्वम्=विद्वद्वर्गम् । प्रियमेधम्=यज्ञादिप्रियसमूहम् । उपस्तुतम्=प्रशंसनीयसंघम् । आवतम्=रक्षथः । तथैव । शिञ्जारम्=शब्दायमानमर्थिभ्यो धनं याचमानम् । अत्रिम्=मातापितृभ्रातृत्रयविहीनमनाथं बालकमपि । रक्षतमित्युपदेशः ॥२५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उक्त दोनों से रक्षा की प्रार्थना करना कथन करते हैं।
पदार्थ
(अश्विना) हे व्यापकशक्तिवाले ! (यथाचित्) जिस प्रकार (कण्वं, उपस्तुतं) उपस्तुति करनेवाले विद्वान् (प्रियमेधं) प्रशंसनीय बुद्धिवाले मनुष्य तथा (शिञ्जारं, अत्रिं) शब्दायमान अत्रि की (आवतं) रक्षा की, उसी प्रकार मेरी भी रक्षा करें ॥२५॥
भावार्थ
हे ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! जिस प्रकार आपने स्तुति करनेवाले विद्वान्, पूज्यबुद्धिवाले मनुष्य तथा अत्रि की रक्षा की, उसी प्रकार मेरी रक्षा करें अर्थात् “अविद्यमानानि आधिभौतिकाधिदैविकाध्यात्मिकानि दुःखानि यस्यासावत्रिः”=जिसके आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार के दुःखों की निवृत्ति हो गई हो, उसको “अत्रि” कहते हैं। सो जैसे आप अत्रि की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार मेरी रक्षा करें ॥२५॥
विषय
इससे अनाथरक्षा के लिये उपदेश देते हैं ।
पदार्थ
(अश्विना) हे अश्वयुक्त राजन् तथा हे मन्त्रिमण्डल ! (यथा+चित्) जिस प्रकार (कण्वम्) विद्वद्वर्ग की (प्रियमेधम्) यज्ञादि शुभकर्मियों के या बुद्धिमानों के समूह की और (उपस्तुतम्) प्रशंसनीय समुदाय की आप (आवतम्) रक्षा करते चले आए हैं, इसी प्रकार (शिञ्जारम्) अर्थियों से याचना करते हुए (अत्रिम्) माता पिता भ्राता तीनों से रहित बालकों की रक्षा कीजिये ॥२५ ॥
भावार्थ
जो किन्हीं विशेष विद्याओं में निपुण हैं, वे कण्व, जो सदा प्रेम से यज्ञ करते हैं, वे प्रियमेध, जो माता-पिता और भ्राता, इन तीनों से रहित हैं, वे अत्रि, इनकी और एतत्समान अन्यान्य जनों की राजा सदा रक्षा करे ॥२५ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यथा चित् ) जैसे भी हो वैसे हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय उत्तम बलवान् विद्यावान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( कण्वम् आ अवतम् ) विद्वान् पुरुष की रक्षा किया करो। और आप दोनों ( उप-स्तुतम् ) प्रशंसनीय ( प्रिय-मेधम् ) यज्ञ और युद्धादि के प्रिय विद्वान् और वीर पुरुष की रक्षा करो। और ( शिञ्जारम् ) मधुर शब्द करने और मधुर वचन कहने वाले वाद्य, गान प्रिय एवं कवि और उत्तम उपदेष्टा वर्ग की भी रक्षा करो। इति पञ्चमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'कण्व-प्रियमेध-उपस्तुत-अत्रि-शिञ्जार'
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यथा चित्) = जैसे निश्चय से (कण्वम्) = मेधावी पुरुष को (आवतम्) = आप रक्षित करते हो। इसी प्रकार (प्रियमेधम्) = यज्ञप्रिय मनुष्य को तथा (उपस्तुतम्) = यज्ञों के द्वारा ही प्रभु-स्तवन व प्रभु-पूजन करनेवाले व्यक्ति को आप [आवतं] रक्षित करते हो। [२] हे प्राणापानो ! (अत्रिम्) = काम-क्रोध-लोभ से दूर रहनेवाले का आप रक्षण करते हो और (शिञ्चारम्) = सदा प्रभु के गुणों का गान करनेवाले, प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले को आप रक्षित करते हो। वस्तुतः प्राणसाधना ही हमें 'कण्व, प्रियमेध, उपस्तुत, अत्रि व शिञ्जार' बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हम 'मेधावी, यज्ञशील, स्तुति प्रवण, काम, क्रोध व लोभ से ऊपर उठे हुए तथा सदा मधुरता से प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले' बनेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
Come the same way as you protect and save the man of knowledge and wisdom, the celebrated intellectual and the sage loud and bold who has broken off all his three snares of body, mind and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! ज्या प्रकारे तुम्ही स्तुती करणारे विद्वान, पूज्य बुद्धियुक्त माणसे व अत्रीचे रक्षण केले त्याचप्रकारे माझे रक्षण करा. ‘अविद्यमानानि आधिभौतिकाधिदैविकाध्यात्मिकानि दु:खानि यस्यासावत्रि:’ ज्याची आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक तिन्ही प्रकारच्या दु:खाची निवृत्ती झालेली आहे. त्याला ‘अत्रि’ म्हणतात. ॥२५॥
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