ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 35
ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
हि॒र॒ण्यये॑न॒ रथे॑न द्र॒वत्पा॑णिभि॒रश्वै॑: । धीज॑वना॒ नास॑त्या ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒र॒ण्यये॑न । रथे॑न । द्र॒वत्पा॑णिऽभिः । अश्वैः॑ । धीऽज॑वना । नास॑त्या ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्ययेन रथेन द्रवत्पाणिभिरश्वै: । धीजवना नासत्या ॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्ययेन । रथेन । द्रवत्पाणिऽभिः । अश्वैः । धीऽजवना । नासत्या ॥ ८.५.३५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 35
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(धीजवना) हे मनोवेगौ (नासत्या) सत्यप्रतिज्ञौ ! (हिरण्ययेन, रथेन) हिरण्मयेन यानेन (द्रवत्पाणिभिः, अश्वैः) शीघ्रगामिपदैरश्वैः आगच्छतम् ॥३५॥
विषयः
पुनरपि रथो वर्ण्यते ।
पदार्थः
हे धीजवना=धियो मनसो जव इव जवो वेगो ययोस्तौ=हे मनोभामिनौ । हे नासत्या=नासत्यौ= असत्यरहितौ राजानौ । युवाम् । द्रवत्पाणिभिः= शीघ्रगमनचरणैः । अश्वैर्युक्तेन । हिरण्ययेन=सुवर्णमयेन । रथेन । आगच्छतमिति शेषः ॥३५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(नासत्या) हे सत्यप्रतिज्ञ ! (धीजवना) मन के समान गतिवाले (हिरण्ययेन, रथेन) हिरण्मय रथ और (द्रवत्पाणिभिः, अश्वैः) शीघ्रगामी पैरोंवाले अश्वों द्वारा आप आवें ॥३५॥
भावार्थ
हे सत्यप्रतिज्ञ ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप मन समान शीघ्रगामी सुवर्णमय रथ पर चढ़कर शीघ्र ही हमारे यज्ञ में सम्मिलित हों ॥३५॥
विषय
फिर भी रथ का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
(धीजवना) हे मन जैसे वेगवाले (नासत्या) हे असत्यरहित राजा तथा मन्त्रिदल ! (द्रवत्पाणिभिः) शीघ्रगामी चरणवाले (अश्वैः) घोड़े से युक्त (हिरण्ययेन) सुवर्णमय (रथेन) रथ से आप आवें ॥३५ ॥
भावार्थ
बहुधा राजा का रथ स्वर्णमय होना चाहिये ॥३५ ॥
विषय
उषा और अश्वियुगल। गृहलक्ष्मी उषा देवी। जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों को गृहस्थोचित उपदेश। वीर विद्वान् एवं राजा और अमात्य-राजावत् युगल जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (नासत्या) नासिका में स्थित प्राणों के समान राष्ट्र में विद्यमान प्रमुख स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (धी-जवना) कर्म और बुद्धि में तीव्र वेग से युक्त होकर ( द्रवत् पाणिभिः अश्वैः रथेन ) वेगयुक्त चरणों वाले अश्वों से युक्त रथ के समान ही ( द्रवत्-पाणिभिः अश्वैः ) शीघ्र कर्मकारी, कुशल, सिद्ध हस्त विद्वानों से सुसज्जित ( हिरण्येन रथेन ) सुवर्णादि से सन्नद्ध उत्तम राष्ट्र सहित हमें प्राप्त होओ। इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मातिथिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—३७ अश्विनौ। ३७—३९ चैद्यस्य कर्शोदानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ५, ११, १२, १४, १८, २१, २२, २९, ३२, ३३, निचृद्गायत्री। २—४, ६—१०, १५—१७, १९, २०, २४, २५, २७, २८, ३०, ३४, ३६ गायत्री। १३, २३, ३१, ३५ विराड् गायत्री। १३, २६ आर्ची स्वराड् गायत्री। ३७, ३८ निचृद् बृहती। ३९ आर्षी निचृनुष्टुप्॥ एकोनचत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'शरीर, इन्द्रियों व बुद्धि' का परिमार्जन
पदार्थ
[१] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप (हिरण्ययेन रथेन) = हितरमणीय व ज्योतिर्मय शरीर रथ से तथा (द्रवत् पाणिभिः) = कर्मों में शीघ्रता से प्रवृत्त हाथोंवाले (अश्वैः) = इन्द्रियाश्वों से धीजवना हमारे जीवनों में बुद्धि व कर्मों को प्रेरित करनेवाले हो । [२] प्राणसाधना से शरीर तेजस्वी बनता है, इन्द्रियाश्व स्फूर्तिवाले बनते हैं। शरीर में बुद्धि व कर्मों की प्रेरणा होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना 'शरीर, इन्द्रियों व बुद्धि' को उत्तम बनाती है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, ever truthful and imperishable powers, flying at the speed of thought by a golden chariot running by the power of revolving hands (like pistons, cranks or turbines and motors), no one can obstruct your course of progress.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सत्यप्रतिज्ञा करणाऱ्या ज्ञानयोगी व कर्मयोगी! तुम्ही मनासारखे शीघ्र बनून सुवर्णमय रथावर चढून शीघ्र आमच्या यज्ञात सामिल व्हा ॥३५॥
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