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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
    ऋषिः - आयुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    पृष॑ध्रे॒ मेध्ये॑ मात॒रिश्व॒नीन्द्र॑ सुवा॒ने अम॑न्दथाः । यथा॒ सोमं॒ दश॑शिप्रे॒ दशो॑ण्ये॒ स्यूम॑रश्मा॒वृजू॑नसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृष॑ध्रे । मेध्ये॑ । मा॒त॒रिश्व॑नि । इन्द्र॑ । सु॒वा॒ने । अम॑न्दथाः । यथा॑ । सोम॑म् । दश॑ऽशिप्रे । दश॑ऽओण्ये । स्यूम॑ऽरश्मौ । ऋजू॑नसि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृषध्रे मेध्ये मातरिश्वनीन्द्र सुवाने अमन्दथाः । यथा सोमं दशशिप्रे दशोण्ये स्यूमरश्मावृजूनसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृषध्रे । मेध्ये । मातरिश्वनि । इन्द्र । सुवाने । अमन्दथाः । यथा । सोमम् । दशऽशिप्रे । दशऽओण्ये । स्यूमऽरश्मौ । ऋजूनसि ॥ ८.५२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, O divine soul, enjoy soma ecstasy in the company of the inspired celebrant, the vibrant sage of cosmic imagination, abundantly fulfilled devotee of divinity, the realised visionary of the light of knowledge, and the sage of natural and simple rectitude.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्यकारक बोध प्राप्त झाल्यावर व्यक्ती दिव्यानंदधारी, बलवान उत्तम सुखसुविधांनी पूर्ण विज्ञान रश्मीद्वारे तेजस्वी होते व पूर्णपणे तृप्त होते. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यसाधक मन! (सोमम्) ऐश्वर्य के दाता बोध की (सुवाने) प्रेरणा प्राप्त कर रहे (पृषधे) दिव्यानन्दधारी, (मातरिश्वनि) अन्तरिक्ष में गति वाली वायु के तुल्य बलिष्ठ एवं वेगवान् (दशशिप्रे) बहुविध ठोस सुख से परिपूर्ण, (दशोण्ये) बहुत प्रकार से स्वाश्रितों के दुःख हरने वाले, (स्यूमरश्मौ) अंग-अंग में व्याप्त विज्ञान-किरण एवं (ऋजूनसि) सरल आचार व्यवहार वाले अभ्यासी के सम्पर्क में (यथा) उचित (अमन्दथाः) तृप्ति का अनुभव कर॥२॥

    भावार्थ

    ऐश्वर्य देने वाले बोध के प्राप्त होने पर व्यक्ति दिव्यानन्दधारी, बलिष्ठ, उत्तम सुख सुविधाओं से सम्पन्न विज्ञानरश्मियों के द्वारा तेजस्वी हो जाता है और पूरी तरह तृप्त रहता है॥२॥

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    विषय

    शक्तिशाली, राजा, विद्वान् और परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् ! तू ( पृषध्रे ) जलसेचक मेघ को धारण करने वाले ( मेध्ये ) उत्तम अन्न के हितकारी ( सुवाने ) उत्पादक ( मातरिश्वनि ) आकाशगामी वायु में आनन्द लाभ करता है। और ( यथा ) जिस प्रकार ( दशशिप्रे ) दशों प्राणों को मुकुटवत् धारण करने वाले वा ( दशोण्ये ) दश प्राण युक्त ( स्यूम-रश्मौ ) रश्मियों से युक्त तेजस्वी (ऋजु-नसि) सरल नासिका वाले, अभ्यासी पुरुष में (सोमं), परमानन्द रस का पान करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ निचृद् बृहती। ३, बृहती। ६ विराड् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    पृषध्र-ऋजूनस्

    पदार्थ

    [१] (यथा) = जिस प्रकार हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (पृषध्रे) = शक्ति सेचन के द्वारा अपना धारण करनेवाले में, (मेध्ये) = यज्ञों में उत्तम, अर्थात् यज्ञशील पुरुष में, (मातरिश्वनि) = वेदमाता के अनुसार गति द्वारा वृद्धि को प्राप्त करनेवाले व (सोमं सुवाने) = सोम का सम्पादन करनेवाले में (अमन्दथा:) = आप आनन्द को करते हो, अर्थात् इन 'पृषध्र' आदि को प्रभु आनन्दित करते हैं। [२] (यथा) = जिस प्रकार (दशशिप्रे) = दस शिरस्त्राणोंवाले में, अर्थात् दसों इन्द्रियों को सुरक्षित रखनेवाले में, (दशोण्ये) = दसों इन्द्रियों के मलों को दूर करनेवाले में [ओण् अपनयने], (स्यूमरश्मौ) = आनन्दकर ज्ञानरश्मियोंवाले में तथा (ऋजूनसि) = ऋजु [सरल] मार्ग से गति करते हुए दुःखों का परिहाण [ऊन् परिहाणे] करनेवाले में आनन्दित करते हैं। इसी प्रकार हमारे जीवनों में सोमरक्षण द्वारा आनन्द को करनेवाले होइये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'पृषध्र, मेध्य, मातरिश्वा, सोमसवन करनेवाले, दशशिप्र दशोण्य, स्यूनरश्मि, ऋजूनस्' बनकर आनन्दित हों।

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