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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
    ऋषिः - आयुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यस्य॒ त्वमि॑न्द्र॒ स्तोमे॑षु चा॒कनो॒ वाजे॑ वाजिञ्छतक्रतो । तं त्वा॑ व॒यं सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहो॑ जुहू॒मसि॑ श्रव॒स्यव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । स्तोमे॑षु । चा॒कनः॑ । वाजे॑ । वा॒जि॒न् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । सु॒दुघा॑म्ऽइव । गो॒ऽदुहः॑ । जु॒हू॒मसि॑ । श्र॒व॒स्यवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य त्वमिन्द्र स्तोमेषु चाकनो वाजे वाजिञ्छतक्रतो । तं त्वा वयं सुदुघामिव गोदुहो जुहूमसि श्रवस्यव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । त्वम् । इन्द्र । स्तोमेषु । चाकनः । वाजे । वाजिन् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । तम् । त्वा । वयम् । सुदुघाम्ऽइव । गोऽदुहः । जुहूमसि । श्रवस्यवः ॥ ८.५२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In whose hymns of adoration and victorious deeds you delight, O hero of a hundred grand deeds and victory, the same we, seekers of sustenance, honour and fame, invoke, you Indra, and pray for blessings as milkmen love and treat a generous cow for the gift of milk.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा परमेश्वराचे स्तुतिगान करून त्याला खरे तर काही देत नाही, परंतु तेच जणू त्याचे प्रभूला दान आहे. या दानाने त्याच्यामध्ये परमेश्वराच्या गुणग्रहणाची शक्ती संचित होते. हेच ‘आदान’ आहे. या प्रकारे ‘दानादान’ ची ही क्रिया अथवा यज्ञ निष्पन्न होत आहे. ॥४॥

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    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    हे (वाजिन्) विज्ञान इत्यादि बल-धारण करने वाले, (शतक्रतो) सैकड़ों कर्म करने वाले इन्द्र-परमैश्वर्य सम्पन्न जीवात्मन्! (त्वम्) तू विज्ञानादि बल हेतु (यस्य) जिसके (स्तोमेषु) स्तुतिवचनों में (चाकनः) प्रीति रखे (तम्) उस प्रभु को (श्रवस्यवः वयम्) अन्न आदि ऐश्वर्य की इच्छा रखते हुए हम (गोदुहः) गाय से दूध दुहने वाले (सुदुघाम् इव) सुगमता से दुही जाने वाली गाय को जैसे दाना आदि देकर उससे दूध लेते हैं वैसे हम (जुहुमः) उस प्रभु का गुणगान कर मानो उसे कुछ समर्पित करते हैं और फिर उसके गुण ग्रहण करते हैं।॥४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर का स्तुतिगान करके जीवात्मा यों तो वस्तुतः कुछ नहीं देता, परन्तु मानो वही उसका प्रभु को दान है। इस 'दान' से उसमें परमेश्वर के गुणग्रहण की शक्ति का संचय होता है, यही 'आदान' है। इस तरह 'दानादान' की क्रिया है अथवा यज्ञ निष्पन्न हो रहा है॥४॥

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    विषय

    महान् शासक परमेश्वर इन्द्र।

    भावार्थ

    हे (वाजिन्) ऐश्वर्यवन् ! बलवन् ! हे (शत-क्रतो) अनेक प्रज्ञा वाले ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वम् ) तू ( यस्य ) जिसके ( वाजे ) यज्ञ में ( स्तोमेषु ) स्तुतिवचनों में ( चाकन: ) अभिलाषा करता है, ( गोदुहः सुदुधाम् इव ) गौ दुहने वाले उत्तम दुग्धदात्री गौ को जिस प्रकार बुलाते हैं उसी प्रकार (वयं ) हम लोग ( तं त्वा ) उस तुझको ( श्रवस्यवः ) धन, ज्ञान, यश, अन्नादि के इच्छुक होकर ( जुहूमसि ) ) तुझे पुकारते हैं, तेरी प्रार्थना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ निचृद् बृहती। ३, बृहती। ६ विराड् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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