ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 6
यस्मै॒ त्वं व॑सो दा॒नाय॒ मंह॑से॒ स रा॒यस्पोष॑मिन्वति । व॒सू॒यवो॒ वसु॑पतिं श॒तक्र॑तुं॒ स्तोमै॒रिन्द्रं॑ हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मै॑ । त्वम् । व॒सो॒ इति॑ । दा॒नाय॑ । मंह॑से । सः । रा॒यः । पोष॑म् । इ॒न्व॒ति॒ । व॒सु॒ऽयवः॑ । वसु॑ऽपतिम् । श॒तऽक्र॑तुम् । स्तोमैः॑ । इन्द्र॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मै त्वं वसो दानाय मंहसे स रायस्पोषमिन्वति । वसूयवो वसुपतिं शतक्रतुं स्तोमैरिन्द्रं हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मै । त्वम् । वसो इति । दानाय । मंहसे । सः । रायः । पोषम् । इन्वति । वसुऽयवः । वसुऽपतिम् । शतऽक्रतुम् । स्तोमैः । इन्द्रम् । हवामहे ॥ ८.५२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of wealth and honour, whoever you ask and inspire to give in charity, rises in wealth, health and advancement. We, seekers of wealth, honour and fame, invoke and glorify Indra, lord ruler and protector of the world’s wealth and grandeur, hero of a hundred acts of holiness, with hymns of adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या समृद्धरूपाचे स्तवन करत जेव्हा साधक गुणग्रहणासाठी सुपात्र बनतो तेव्हा त्याला ईश्वराच्या गुणांचे दान असे मिळते की, जणू परमेश्वराच्या आदेशानेच हे होते. त्यासाठी प्रत्येक माणसाने परमेश्वराचे गुण स्वत: ऐकावे व इतरांनाही ऐकवावे हाच भगवत् कीर्तन यज्ञ आहे. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वसो) बसने वाले प्रभु! आप (यस्मै) जिस साधक के हेतु (दानाय) दानार्थ (महसे) आदेश देते है (सः) वह साधक (रायस्पोषम्) ऐश्वर्य पुष्टि को (इन्वति) प्राप्त करता है--वह धन से समृद्ध होता है। अतएव (वसूयवः) ऐश्वर्य के इच्छुक हम साधक (स्तोमैः) स्तुति वचनों के द्वारा (वसुपतिम् शतक्रतुम्) धनपालक, बहुकर्मा (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् भगवान् का ही (हवामहे) दूसरों को उपदेश देते हैं और उस ही के गुण सुनते हैं॥६॥
भावार्थ
प्रभु के समृद्ध रूप का गुणगान करते-करते जब साधक गुणग्रहण हेतु सुपात्र बनता है तब उसे भगवान् के गुणों का दान ऐसे मिलता है कि मानो भगवान् के आदेश से ही ऐसा हुआ है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह प्रभु के गुणों को स्वयं सुने व दूसरों को सुनाए भी। यही भगवत् कीर्तन यज्ञ है॥६॥
विषय
उसकी स्तुति प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( वसो ) सर्व व्यापक ! ( त्वं यस्मै दानाय मंहसे ) तू जिस दानशील को दान देता है ( सः रायः पोषम् इन्वति ) वह ऐश्वर्य की समृद्धि को प्राप्त करता है। हम ( वसु-पतिं ) सब लोकों और जीवों के पालक ( शत-क्रतुं ) अनेक कर्मों के कर्त्ता, ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् प्रभु को ( वसूयवः ) ऐश्वर्य के इच्छुक होकर ( हवामहे ) स्तुति प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ निचृद् बृहती। ३, बृहती। ६ विराड् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'वसुपति - शतक्रतु' इन्द्र
पदार्थ
[१] हे (वसो) = वसानेवाले प्रभो ! या वसुओं को देनेवाले प्रभो ! (यस्मै) जिसके लिए (त्वं) = आप (मंहसे) = धनों को देते हैं, वह सब (दानाय) = दान के लिए देते हैं। वस्तुतः धन प्रभु का होता है। हम उस धन के रक्षक होते हैं। इस धन का हमें लोकहित के लिए विनियोग करना होता है। (सः) = वह दान देनेवाला व्यक्ति (रायः) = धनों के (पोषम्) = पोषण को (इन्वति) = प्राप्त होता है। [२] हम भी (वसूयवः) = वसुओं को प्राप्त करने की कामनावाले होते हुए उन (वसुपतिं) = वसुओं के स्वामी (शतक्रतुं) = अनन्त प्रज्ञान व कर्मोंवाले (इन्द्रं) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (स्तोमैः) = स्तुतिसमूहों से (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु ने ही तो हमें वसुओं को प्राप्त कराना है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें दान के लिए धनों को प्राप्त कराते हैं। उस वसुपति को ही हम स्तोमों द्वारा आराधित करते हैं।
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