ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
ऋषिः - मातरिश्वा काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नक्ष॑न्त॒ इन्द्र॒मव॑से सुकृ॒त्यया॒ येषां॑ सु॒तेषु॒ मन्द॑से । यथा॑ संव॒र्ते अम॑दो॒ यथा॑ कृ॒श ए॒वास्मे इ॑न्द्र मत्स्व ॥
स्वर सहित पद पाठनक्ष॑न्ते । इन्द्र॑म् । अव॑से । सु॒ऽकृ॒त्यया॑ । येषा॑म् । सु॒तेषु॑ । मन्द॑से । यथा॑ । स॒म्ऽव॒र्ते । अम॑दः । यथा॑ । कृ॒शे । ए॒व । अ॒स्मे इति॑ । इ॒न्द्र॒ । म॒त्स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नक्षन्त इन्द्रमवसे सुकृत्यया येषां सुतेषु मन्दसे । यथा संवर्ते अमदो यथा कृश एवास्मे इन्द्र मत्स्व ॥
स्वर रहित पद पाठनक्षन्ते । इन्द्रम् । अवसे । सुऽकृत्यया । येषाम् । सुतेषु । मन्दसे । यथा । सम्ऽवर्ते । अमदः । यथा । कृशे । एव । अस्मे इति । इन्द्र । मत्स्व ॥ ८.५४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, the people, in whose realised strength and joy you delight, obtain honour and grace by their noble action. We pray just as you take delight in the acts of the self-controlled man and appreciate the limitations of the attenuated, so accept and cherish whatever homage we are able to offer for protection and grace.
मराठी (1)
भावार्थ
माणूस केवळ संचय करणारा नसावा किंवा केवळ धनहीन नसावा. संचय करत दानशील होणेही प्रभूच्या आज्ञेचे पालन आहे. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्रः) ऐश्वर्य के आकांक्षी! (येषाम्) जिन साधकों के (सुतेषु) निष्पादित विज्ञान बल आदि पर (मन्दसे) तू आह्लादित होता है, वे (अवसे) अपनी सुरक्षा तथा सहायतार्थ (सुकृत्यया) शुभ कर्म धारा द्वारा, सतत सुकर्मरत रहते हुए (इन्द्रम्) परमेश्वर को (नक्षन्ते) प्राप्त करते हैं। तू (यथा) जितना (संवर्ते) सब कुछ संचित कर रखने वाले में (अमदः) प्रसन्न होता है और (यथा) जितने (कृशे) कुछ भी संचय न करने वाले–-ऐश्वर्य से दुर्बलता में (अमदः) आनन्द पाता है (एव) उसी तरह (अस्मे) हम--संचित कर दान देने वालों में (मत्स्व) आनन्दित हो॥२॥
भावार्थ
मानव न तो केवल संचयी ही हो और न ही निरा धनहीन। संचय करते हुए दानशील होना ही प्रभु की आज्ञा का पालन करना है॥२॥
विषय
परमेश्वर की स्तुति प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( येषां ) जिन के ( सुतेषु ) तू उत्पन्न किये उत्तम कर्मों वा ऐश्वर्यो पर (मन्दसे) प्रसन्न होता है वे अपने ( सुकृत्यया ) उत्तम कर्म-सामर्थ्य से ( अवसे ) रक्षा के निमित्त ( इन्द्रम् ) दुष्टों के नाशक उसी स्वामी को ( नक्षन्त ) प्राप्त करते हैं। हे प्रभो ! तू ( यथा ) जिस प्रकार (संवर्त्ते) सम्यक् दृष्टि से वर्त्तने वाले सम्यङ व्यवहारवान् पुरुष पर ( अमदः ) प्रसन्न होता है, और (यथा ) जिस प्रकार ( कृशे ) तपस्या द्वारा शरीर को कृश करने वाले त्यक्तभोगी पर या निर्बल पर प्रसन्न या कृपालु होता है उसी प्रकार तू ( एव अस्मे मत्स्व ) हम पर भी प्रसन्न, कृपालु रह।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मातरिश्वा काण्व ऋषिः॥ १, २, ५—८ इन्द्रः । ३, ४ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, ५ निचृत् बृहती। ३ बृहती। ७ विराड बृहती। २, ४, ६, ८ निचृत् पंक्तिः॥
विषय
संवर्त+कृश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (येषां) = जिनके (सुतेषु) = उत्पन्न किये गये सोमकणों में अथवा यज्ञों में [सुत-सव - यज्ञ] (मन्दसे) = आप आनन्दित होते हैं। जो सोमरक्षण द्वारा अथवा यज्ञों द्वारा आपको आनन्दित करते हैं, वे (सुकृत्यया) = शुभकर्मों के द्वारा अवसे रक्षण के लिए (इन्द्रं नक्षन्ते) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को-आपको प्राप्त होते हैं। [२] हे प्रभो ! (यथा) = जैसे (संवर्ते) = इन्द्रियों व मन को विषयों से हटा कर प्रत्याहत करनेवाले मनुष्य में आप (अमदः) = हृषत होते हो, (यथा) = जैसे (कृशे) = भोगविलास से दूर रहते हुए तपःकृश व्यक्ति में आप आनन्दित होते हो, हे इन्द्र ! (एवा) = इसी प्रकार (अस्मे) = हमारे मैं (मत्स्व) = आप आनन्दित होइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु को उत्तम कर्मों के द्वारा हम प्राप्त होते हैं। प्रभु हमारा रक्षण करते हैं। प्रभु को वे व्यक्ति प्रीणित करते हैं जो यज्ञशील हैं, इन्द्रियों को विषयों से प्रत्याहृत करनेवाले हैं तथा भोगविलास से दूर रहकर तपःकृश जीवन बिताते हैं।
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