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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 54/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मातरिश्वा काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    सन्ति॒ ह्य१॒॑र्य आ॒शिष॒ इन्द्र॒ आयु॒र्जना॑नाम् । अ॒स्मान्न॑क्षस्व मघव॒न्नुपाव॑से धु॒क्षस्व॑ पि॒प्युषी॒मिष॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सन्ति॑ । हि । अ॒र्ये । आ॒ऽशिषः॑ । इन्द्रे॑ । आयुः॑ । जना॑नाम् । अ॒स्मान् । न॒क्ष॒स्व॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । उप॑ । अव॑से । धु॒क्षस्व॑ । पि॒प्युषी॑म् । इष॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सन्ति ह्य१र्य आशिष इन्द्र आयुर्जनानाम् । अस्मान्नक्षस्व मघवन्नुपावसे धुक्षस्व पिप्युषीमिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सन्ति । हि । अर्ये । आऽशिषः । इन्द्रे । आयुः । जनानाम् । अस्मान् । नक्षस्व । मघऽवन् । उप । अवसे । धुक्षस्व । पिप्युषीम् । इषम् ॥ ८.५४.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 54; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The hopes and ambitions and the health and age of humanity depend on Indra, lord of the world and humanity. O lord of glory, pray accept us close to you for the sake of protection and advancement and bless us with energy and inspiration to rise high.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानवाच्या संपूर्ण इच्छा प्रभूवर अवलंबून आहेत. प्रभूच्या यथार्थ स्वरूपाला जाणून मानवाने जर त्याच्यापासून खरी प्रेरणा घेतली तर त्याला सर्व प्राप्तव्य पदार्थ मिळतात. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे प्रभो! (जनानाम्) मनुष्यों की (आशिषः) सिद्ध होने वाली इच्छाएं एवं (आयुः) जीवन व जीवन हेतु अन्न आदि सब (अर्ये) सब के स्वामी (इन्द्रे) आप सर्वैश्वर्यवान् ईश्वर के आधार पर (सन्ति) विद्यमान हैं। हे (मघवन्) पूजित ऐश्वर्य सम्पन्न! आप (अस्मान्) हमें (उप नक्षस्व) सामीप्य से व्याप्त करें, और (अवसे) हमारी रक्षा व सहायतार्थ (पिप्युषीम्) नितान्त पालक (इषम्) प्राप्तव्य की प्रेरणा (धुक्षस्व) पूरित करें तथा दें॥७॥

    भावार्थ

    मानव की सकल सफल इच्छाएँ परमात्मा पर निर्भर हैं। प्रभु के यथार्थ रूप को अपने सामने रखता हुआ मानव यदि उससे सही प्रेरणा पाए तो उसे सभी प्राप्तव्य पदार्थ मिलते हैं॥७॥

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( अर्ये ) स्वामी के आश्रय ही मनुष्यों की सब ( आशिषः सन्ति ) आशाएं होती हैं और ( इन्द्रे ) उसी ऐश्वर्यवान् प्रभु के अधीन समस्त जनों का ( आयुः ) जीवन है। हे ( मघवन् ) प्रभो ! तू ( अस्मान् रक्षस्व ) हमारी रक्षा कर और ( अवसे ) हमें तृप्त करने के लिये ( पिप्युषीम् ) पुष्टि और वृद्धिकारक ( इषं उप धुक्षस्व ) अन्न प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मातरिश्वा काण्व ऋषिः॥ १, २, ५—८ इन्द्रः । ३, ४ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१, ५ निचृत् बृहती। ३ बृहती। ७ विराड बृहती। २, ४, ६, ८ निचृत् पंक्तिः॥

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    विषय

    आशिषः, आयुः इष्

    पदार्थ

    [१] (अर्ये) = स्वामी में (हि) = ही (आशिषः सन्ति) = सब इच्छाएँ व आकांक्षाएँ हैं, अर्थात् प्रभु से ही सब इच्छाओं के पूर्ण होने की आशा है । (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली शत्रुविद्रावक प्रभु में ही (जनानाम् आयुः) = मनुष्यों की आयु है, अर्थात् प्रभु की उपासना ही हमें काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं से बचाकर दीर्घजीवन प्रदान करती है। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् प्रभो ! आप (अस्मान्) = हमें अवसे रक्षण के लिए (उपनक्षस्व) = समीपता से प्राप्त होइये। आपकी समीपता में हम किसी भी से आक्रान्त नहीं हो पाते। हे प्रभो ! आप (पिप्युषीम्) = हमारा आप्यायन करनेवाली (इषम्) = प्रेरणा को (धुक्षस्व) = हमारे अन्दर प्रपूरित करिये। आपकी प्रेरणा से ठीक मार्ग पर चलते हुए हम सदा अपना आप्यायन कर पाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही हमारी आकांक्षाओं को पूर्ण करते हैं, दीर्घजीवन प्रदान करते हैं, हमारा रक्षण करते हुए प्रभु हमें वह प्रेरणा प्राप्त कराते हैं, जो हमारा वर्धन करनेवाली होती है।

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