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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेध्यः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वं दे॑वा॒ क्रतु॑ना पू॒र्व्येण॑ यु॒क्ता रथे॑न तवि॒षं य॑जत्रा । आग॑च्छतं नासत्या॒ शची॑भिरि॒दं तृ॒तीयं॒ सव॑नं पिबाथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । दे॒वा॒ । क्रतु॑ना । पू॒र्व्येण॑ । यु॒क्ताः । रथे॑न । त॒वि॒षम् । य॒ज॒त्रा॒ । आ । अ॒ग॒च्छ॒त॒म् । ना॒स॒त्या॒ । शची॑भिः । इ॒दम् । तृ॒तीय॑म् । सव॑नम् । पि॒बा॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं देवा क्रतुना पूर्व्येण युक्ता रथेन तविषं यजत्रा । आगच्छतं नासत्या शचीभिरिदं तृतीयं सवनं पिबाथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । देवा । क्रतुना । पूर्व्येण । युक्ताः । रथेन । तविषम् । यजत्रा । आ । अगच्छतम् । नासत्या । शचीभिः । इदम् । तृतीयम् । सवनम् । पिबाथः ॥ ८.५७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brilliant and generous, adorable and sociable divinities of eternal truth, Ashvins, harbingers of new knowledge, come with the ancient light and knowledge collected by forefathers and updated by you. Come fast as light with beauty and splendour of your powers, join the third session of our yajna and promote and vitalise it further.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषाच्या जीवनयज्ञाचे तृतीय सवन ४८ वर्षांच्या वयापर्यंत ब्रह्मचर्य सेवन आहे. या उत्तम ब्रह्मचर्याचा स्वीकार करणारे स्त्री-पुरुष ज्ञानवान, तेजस्वी व स्वत: बलवान असतातच; परंतु त्यांनी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक सामर्थ्याचा इतरांना उपदेश देत राहिले पाहिजे. ॥१॥

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    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सदैव सत्याचरण करने वाले (देवा) दानी सुशिक्षित नर-नारियो! (युवम्) तुम दोनों (पूर्वेण) पूर्वजों के द्वारा साक्षात्कृत (क्रतुना) अपने द्वारा प्राप्त किए गए ज्ञान (युक्ताः) के सहित तथा (रथेन) रमणीय तेज सहित (तविषम्) अपने सामर्थ्य को (यजत्रा) दूसरों से संगत कराते हुए--दूसरों को भी अपने जैसा बली बनाते हुए (आगच्छतम्) आओ; (शचीभिः) अपनी शक्तियों को साथ में लेकर आओ और (इदं तृतीयं सवनम्) तृतीय सवन तक ब्रह्मचर्य-सेवन का (पिबथः) पालन करो; इस तृतीय अवस्था का उपभोग करो॥१॥

    भावार्थ

    नर-नारियों के जीवन-यज्ञ का तृतीय सवन ४८ वर्ष की आयु पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन है। इस उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले नर-नारी उपार्जित ज्ञानवान् तेजस्वी व बलवान् स्वयं तो होते ही हैं, परन्तु उन्हें अपने शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक सामर्थ्य का दूसरों को भी उपदेश देते रहना चाहिये॥१॥

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    विषय

    सदाचारी स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) सदा सत्याचरणशील स्त्री पुरुषो ! ( युवं ) आप दोनों ( देवा ) उत्तम दानशील, ज्ञान धनादि के दान देने में समर्थ होकर ( पूर्व्येण ) अपने पूर्व के, वा शान्तिपूर्ण ( क्रतुना ) कर्म सामर्थ्य से ( युक्ता ) युक्त एवं सावधान, एकाग्रचित्त, ( यजत्रा ) यज्ञशील दानपरायण, ईश्वरोपासना में रत होकर ( तविषं ) बल या दृढ़तापूर्वक ( आ गच्छतम् ) और आगे बढ़ो। ( शचीभिः ) शक्तियों और वेदवाणियों द्वारा ( इदं तृतीयं सवनं ) इस तृतीयसवन, तीसरे आश्रम को भी ( पिबथ: ) पालन करो।

    टिप्पणी

    अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद् वर्षाणि तत् तृतीयं सवनं। अष्टाचत्वारिंशदक्षरा जगती। जागतं तृतीयं सवनं तस्यादित्या अन्वायत्ताः। प्राण वा वादित्या एतेहीदं सर्वंमाददते। तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स बूयात् प्राणा आदित्या इदं मे तृतीयसवनमनुसंतनुतेति माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीये त्युद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति॥ ( छान्दोग्योपनिषद्। अ० ३। ख० १६॥ जीवन के ४८ वर्ष बीतने पर तीसरा सवन है। वह जगत् के उप कारार्थ होता है। उसका ज्ञापक जगतीछन्द है। जगतीछन्द के ४८ अक्षर होते हैं। उसको आदित्य प्राप्त होते हैं। प्राण आदित्य हैं, वे उसका ग्रहण करते हैं। इस अवस्था में तप करना यज्ञ में तृतीय सवन के समान है। जो यज्ञ का नाश न करे वह उन्नति को प्राप्त होता है और उसके सब दुःखों का नाश होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुऋचं सूक्तम्॥

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