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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
ऋषिः - मेध्यः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वां दे॒वास्त्रय॑ एकाद॒शास॑: स॒त्याः स॒त्यस्य॑ ददृशे पु॒रस्ता॑त् । अ॒स्माकं॑ य॒ज्ञं सव॑नं जुषा॒णा पा॒तं सोम॑मश्विना॒ दीद्य॑ग्नी ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वाम् । दे॒वाः । त्रयः॑ । ए॒का॒द॒शासः॑ । स॒त्याः । स॒त्यस्य॑ । द॒दृ॒शे॒ । पु॒रस्ता॑त् । अ॒स्माक॑म् । य॒ज्ञम् । सव॑नम् । जु॒षा॒णा । पा॒तम् । सोम॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । दीद्य॑ग्नी॒ इति॒ दीदि॑ऽअग्नी ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवां देवास्त्रय एकादशास: सत्याः सत्यस्य ददृशे पुरस्तात् । अस्माकं यज्ञं सवनं जुषाणा पातं सोममश्विना दीद्यग्नी ॥
स्वर रहित पद पाठयुवाम् । देवाः । त्रयः । एकादशासः । सत्याः । सत्यस्य । ददृशे । पुरस्तात् । अस्माकम् । यज्ञम् । सवनम् । जुषाणा । पातम् । सोमम् । अश्विना । दीद्यग्नी इति दीदिऽअग्नी ॥ ८.५७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, harbingers of the light of knowledge, thirty-three divinities, eternally true, have revealed to you the truth of their reality. Friendly and loving, brilliant as the light and fire of Agni, come to our yajna, taste, protect and promote the soma of our yajnic endeavour for further progress than before.
मराठी (1)
भावार्थ
वसू इत्यादी ३३ देवतांच्या गुणांचे अध्ययन व जीवनात त्यांच्याकडून उपयोग तृतीय सवनमध्ये पोचण्यापूर्वीच स्त्री-पुरुषांनी केलेला आहे व सत्य अर्थात् यथार्थाचे दर्शन केलेले आहे. आता साधक त्यांना आपल्या जीवनयज्ञात सहायक बनण्याची प्रार्थना करतो. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अश्विना) नर-नारियो! (युवाम्) तुम दोनों को (सत्याः) न चूकने वाले (त्रयः एकादशासः) ३x११=३३ (देवाः) देवताओं ने (पुरस्तात्) पहले ही (सत्यस्य) सत्य (ददृशे) दिखलाया है। (दीद्यग्नी) अपने संकल्पबल को उजागर करते हुए, अब तुम दोनों (सवनम्) तृतीय सवन का (जुषाणा) प्रीतिसहित सेवन करते हुए (अस्माकम्) हमारे (सोमम्) सारे गुणों, ऐश्वर्य एवं कल्याण के निष्पादक अध्ययन-अध्यापन रूप (यज्ञम्) इस जीवन यज्ञ का (पातम्) पालन कराएं॥२॥
भावार्थ
वसु इत्यादि ३३ देवताओं के गुणों का अध्ययन एवं जीवन में उनसे उपयोग तो तृतीय सवन में पहुँचने से पहले ही नर-नारी कर चुके हैं और सत्य या यथार्थ का दर्शन भी कर चुके हैं। अब साधक उनसे अपने जीवन-यज्ञ में सहायक होने की प्रार्थना करता है॥२॥
विषय
जीवन का तृतीय सवन।
भावार्थ
( देवाः ) दिव्य गुणों के धारण करने वाले ( त्रयः एकादशासः ) ११ ᳵ ३ = ३३ ( सत्याः ) सत् गुण से युक्त हैं। विद्वान् पुरुषों ने ( सत्यस्य पुरस्तात् ददृशे ) इस सत्य का पहले ही दर्शन किया है। हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( दीद्यग्नी ) प्रज्वलिताग्नि होकर ( युवां ) आप दोनों ( अस्माकं ) हमारे ( सवनं यज्ञं ) यज्ञ सवन का प्रेमपूर्वक सेवन करते हुए ( सोमं पातम् ) यज्ञ में ओषधि रसवत् देह में वीर्य का पालन और उसका ज्ञान-अर्जनादि में उपयोग किया करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यः काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ चतुऋचं सूक्तम्॥
विषय
देवों व महादेव का दर्शन
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (युवां) = आप दोनों को (त्रयः एकादशासः) = तीन गुणा ग्यारह, अर्थात् (तैंतीस सत्याः देवाः) = सत्य देव (सत्यस्य पुरस्तात्) = उस सत्यस्वरूप प्रभु से पूर्व ददृशे देखते हैं। प्राणसाधना के होने पर जीवन में पहले ३३ देवों का प्रकाश होता है और तदनन्तर प्रभु की ज्योति का दर्शन होता है। प्राणसाधना हमारे जीवन में दिव्यगुणों का वर्धन करती हुई हमें प्रभु को समीप प्राप्त कराती है। [२] हे प्राणापानो! आप (अस्माकं) = हमारे (यज्ञं सवनं) = यज्ञमय प्रातः सवन, माध्यन्दिन सवन व तृतीय सवन का (जुषाणा) = सेवन करते हुए (सोमं पातं) = सोम का रक्षण करो और इस प्रकार (दीद्यग्नी) = देदीप्यमान ज्ञानाग्निवाले होओ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से दिव्यभावों का वर्धन होकर अन्ततः प्रभु का दर्शन होता है। सोम का रक्षण होकर ज्ञानाग्नि का दीपन होता है।
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