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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेध्यः काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एक॑ ए॒वाग्निर्ब॑हु॒धा समि॑द्ध॒ एक॒: सूर्यो॒ विश्व॒मनु॒ प्रभू॑तः । एकै॒वोषाः सर्व॑मि॒दं वि भा॒त्येकं॒ वा इ॒दं वि ब॑भूव॒ सर्व॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एकः॑ । ए॒व । अ॒ग्निः । ब॒हु॒धा । सम्ऽइ॑द्धः । एकः॑ । सूर्यः॑ । विश्व॑म् । अनु॑ । प्रऽभू॑तः । एका॑ । ए॒व । उ॒षाः । सर्व॑म् । इ॒दम् । वि । भा॒ति॒ । एक॑म् । वै॒ । इ॒दम् । वि । ब॒भू॒व॒ । सर्व॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध एक: सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः । एकैवोषाः सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकः । एव । अग्निः । बहुधा । सम्ऽइद्धः । एकः । सूर्यः । विश्वम् । अनु । प्रऽभूतः । एका । एव । उषाः । सर्वम् । इदम् । वि । भाति । एकम् । वै । इदम् । वि । बभूव । सर्वम् ॥ ८.५८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The nature of awareness in communion is this, and this same is the understanding of an intelligent soul: Only one Agni, fire, lighted in many ways, only one sun risen all over the world, only one dawn rising daily anew, lights this entire world, and only one universal spirit pervades this entire universe, the entire existence is one.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानव आपल्या जीवनात भौतिक अग्नीच्या अनेक रूपांना आग, जठराग्नी, वडवाग्नी, विद्युत इत्यादींना पाहतो. त्याला वाटते की, सूर्यच स्थावर व जंगम जगाचा आत्मा - प्रेरकशक्ती आहे व त्याच प्रकारे शेवटी जाणतो की, परमेश्वरच शक्तिरूपाने कणाकणात व्यापक आहे - तोच जगाचा वास्तविक संचालक आहे. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    स्व जीवन-यज्ञ का सम्पादन करते हुए व्यक्ति ऐसा अनुभव करता है कि (एकः एव) अकेला एक ही (अग्निः) अग्नि (बहुधा) अनेक रूपों में (समिद्धः) संदीप्त कर दिया जाता है; [मानव अनुभव करता है कि] (एकः) अकेला (सूर्यः) सूर्य (विश्वम्) सकल संसार के (अनु प्रभूतः) जन्म-मरण चक्र का संचालन करता है (एका एव) एक ही उषा--प्रातःकालीन प्रकाश (इदं सर्वम्) इस सारे जगत् को (विभाति) प्रकाशित करता है। (वा) वस्तुतः तो (एक) एक ही ब्रह्म (इदं सर्वम्) समग्र जगत् में (विबभूव) व्याप्त है॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपने जीवन में भौतिक अग्नि के अनेक रूप आग, जाठराग्नि, वाडवाग्नि, विद्युत् आदि देखता है; वह यह अनुभव करता है कि सूर्य ही स्थावर व जंगम संसार की प्रेरक शक्ति है और इसी प्रकार अन्त में अनुभव करता है कि प्रभु ही शक्तिरूप में कण-कण में व्याप्त है--वही वस्तुतः संसार का संचालक है॥२॥

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    विषय

    सूर्य, अग्नि, उषावत् सर्वप्रकाशक प्रभु।

    भावार्थ

    उस उपास्य को यज्ञ द्वारा उपासना करने में यजमान की ऋत्विजों के साथ इस प्रकार की सम्यग् दृष्टि होनी चाहिये कि—जिस प्रकार ( एकः एव अग्निः ) एक ही अग्नि ( बहुधा समिद्धः ) आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि आदि नाना प्रकार से संदीप्त किया जाता है, और जिस प्रकार ( एकः सूर्य: ) एक ही सूर्य ( विश्वम् अनु प्रभूतः ) समस्त विश्व के प्रति प्रकाश ताप देने और जगत् के गतिमान् पिण्डों को स्तम्भन करने में पर्याप्त समर्थ होता है और जिस प्रकार ( एका एव उषाः ) एक ही उषा ( इदं सर्व विभाति ) इस सब ब्रह्माण्ड को विशेष रूप से चमका देती है, इसी प्रकार ( इदं ) यह ( सर्वम् ) सब भी ( एकं वा वि बभूव ) एक ही सत् पदार्थ नाना रूप से प्रकट होता है। समस्त विश्व में वही परमात्मा, अग्निवत् स्वप्रकाश, सूर्यवत् सर्वप्रकाशक और उषा वत् सर्व जगत् का प्रवर्तक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध्यः काण्व ऋषिः॥ १ विश्वेदेवा ऋत्विजो वा । २, ३ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    प्रभु की अद्भुत महिमा

    पदार्थ

    [१] (एक एव अग्निः) = एक ही अग्नि (बहुधा समिद्धः) = 'गार्हपत्य, आहवनीय व दक्षिणाग्निरूप' आदि से दीप्त होता है। (एकः सूर्यः) = एक ही सूर्य (विश्वम् अनु प्रभूतः) = सम्पूर्ण संसार के प्रति प्रभाववाला होता है। (एकः एव उषाः) = एक ही उषा (इदं सर्वम्) = इस सबको (विभाति) = दीप्त कर देती है- प्रकाशमय करनेवाली होती है। (एकं वा) = वह एक ही (सत्) = पदार्थ (इदं सर्वम्) = यह सब कुछ (विबभूव) = हो जाता है। एक ही प्रकृति कितने ही रूपों में विकृति को धारण करती है। [२] अग्नि के विविध रूपों का विचार करें तो उस अग्नि में ही प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होने लगती है। यह अग्नि ऑक्सीजन व हाईड्रोजन को मिलाकर पानी बना देती है और वही कालान्तर में उस जल को फाड़कर फिर गैसों का रूप दे देती है। सूर्य का विचार करें तो वहाँ भी प्रभु की अद्भुत महिमा दिखती है। कितनी दूरी तक इस सूर्याग्नि का संताप व प्रकाश पहुँचता है? उषा का अपना ही कुछ अद्भुत महत्त्व है। एक प्रकृति से कितने विविध पदार्थ बने जाते हैं? यह सब विचार हमें उस प्रभु की महिमा का स्मरण कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक ही अग्नि विविध कार्यों को करती हुई नानारूप धारण करती है। एक ही सूर्य विश्व को किस प्रकार प्राण व प्रकाश प्राप्त करा रहा है। उषा उदय होती हुई सब अन्धकार को दूर कर देती है। एक ही सत् प्रकृति उस कुशल कारीगर के हाथों सूर्य-चन्द्र आदि विविध रूपों में विकृत हो जाती है।

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