ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 11
आ नो॑ अग्ने वयो॒वृधं॑ र॒यिं पा॑वक॒ शंस्य॑म् । रास्वा॑ च न उपमाते पुरु॒स्पृहं॒ सुनी॑ती॒ स्वय॑शस्तरम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । व॒यः॒ऽवृध॑म् । र॒यिम् । पा॒व॒क॒ । शंस्य॑म् । रास्व॑ । च॒ । नः॒ । उ॒प॒ऽमा॒ते॒ । पु॒रु॒ऽस्पृह॑म् । सुऽनी॑ती । स्वय॑शःऽतरम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो अग्ने वयोवृधं रयिं पावक शंस्यम् । रास्वा च न उपमाते पुरुस्पृहं सुनीती स्वयशस्तरम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । अग्ने । वयःऽवृधम् । रयिम् । पावक । शंस्यम् । रास्व । च । नः । उपऽमाते । पुरुऽस्पृहम् । सुऽनीती । स्वयशःऽतरम् ॥ ८.६०.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, saviour and purifier of life, closest and friendly, give us wealth which is admirable and leads to progress in food, health and age and cattle wealth. Give us the way of life leading to universally loved wealth, honour and excellence, renowned and rising.
मराठी (1)
भावार्थ
जे प्रशंसनीय असेल असे, धन व जन असावेत. अर्थात ते लोकोपकारी व उद्योगी असावेत. ज्या धनाने अनाथ व असमर्थांचे रक्षण होणार नसेल तर ते काय कामाचे? जेव्हा धनाचा सदुपयोग होतो तेव्हा ते साह्यकारी ठरते. पुष्कळ माणसे धनाचा उपयोग न जाणता ते अधर्मासाठी वापरतात. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने ! हे पावक=आत्मसंशोधक ! हे उपमाते=समीपस्थ ! “उप समीपे मीयते अनुमीयते सर्वैर्यः स उपमातिः” । त्वं वयोवृधम्=वयसामन्नानां वर्धकम् । शंस्यं=प्रशंसनीयम् । रयिम्=सम्पदम् । नोऽस्मान् । आहरेति शेषः । च=पुनः । सुनीती=सुनीत्या । पुरुस्पृहम्=पुरुभिर्बहुभिः स्पृहणीयम् । स्वयशस्तरम्= अतिशयस्वयशोवर्धकं धनं ज्ञानञ्च । रास्व=देहि ॥११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगत (पावक) हे परमपवित्र हे आत्मसंशोधक (उपमाते) सबके समीप वर्तमान देव ! तू (नः) हम लोगों के लिये (वयोवृधम्) अन्न पशु पुत्रादिक वर्धक और (शंस्यम्) प्रशंसनीय (रयिम्) सम्पत्ति (आ) लाकर दे (च) पुनः (सुनीती) सुनीति द्वारा (पुरुस्पृहम्) बहुप्रिय और (स्वयशस्तरम्) निज यशोवर्धक धन, जन और ज्ञान (नः) हमको (रास्व) दे ॥११ ॥
भावार्थ
धन या जन वैसा हो, जो प्रशंसनीय हो अर्थात् लोकोपकारी और उद्योगी हो । जिस धन से अनाथों और असमर्थों की रक्षा न हुई, तो वह किस काम का । धनादिकों की तब ही प्रशंसा हो सकती है, जब उनका सदुपयोग और साहाय्यार्थ हो । बहुत आदमी धन प्राप्त कर उसका उपयोग न जान उससे धर्म के स्थान में अधर्म कमाते हैं ॥११ ॥
विषय
पावन प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! ज्ञानशालिन् ! हे ( पावक ) पवित्र करने हारे पतितपावन ! तू ( नः ) हमें ( शंस्यं ) प्रशंसनीय ( वयोवृधं ) आयु, बल का वर्धक ( रयिम् ) ऐश्वर्य ( आ रास्व ) सब ओर से प्राप्त करा। हे ( उपमाते ) अनुपम ! तू ( नः ) हमें ( सुनीती ) उत्तम नीति से ( स्वयशस्तरम् ) स्वजन, धन, कीर्ति को अधिक बढ़ाने वाला, ( पुरु-स्पृहं ) सबको अच्छा लगने वाला धन ( रास्स्व च ) प्रदान भी कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'वयोवृधं शंस्यम्' रयिम्
पदार्थ
[१] (उपमाते) = सब ऐश्वर्यों के देनेवाले (अग्ने) = प्रभो ! आप (नः) = हमारे लिए (रयिं) = धन को (आरास्व) = सब ओर से दीजिए। उस धन को जो (वयोवृधम्) = हमारी आयु की वृद्धि का कारण बने (च) = और (शंस्यम्) = प्रशंसनीय हो। [२] हे पावक पवित्र करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे लिए उस धन को दीजिए, जो (पुरुस्पृमहं) = बहुत ही स्पृहणीय हो तथा (सुनीति) = शुभनीतिमार्ग से कमाया जाकर (स्वयशस्तरम्) = अपनी कीर्ति को बढ़ानेवाले हो ।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु का स्मरण करते हुए हम शुभनीतिमार्ग से उस धन का अर्जन करें जो हमारे आयुष्य को बढ़ाए तथा प्रशंसनीय, स्पृहणीय व यशस्वी बनानेवाला हो ।
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