ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 13
शिशा॑नो वृष॒भो य॑था॒ग्निः शृङ्गे॒ दवि॑ध्वत् । ति॒ग्मा अ॑स्य॒ हन॑वो॒ न प्र॑ति॒धृषे॑ सु॒जम्भ॒: सह॑सो य॒हुः ॥
स्वर सहित पद पाठशिशा॑नः । वृ॒ष॒भः । य॒था॒ । अ॒ग्निः । शृङ्गे॑ । दवि॑ध्वत् । ति॒ग्माः । अ॒स्य॒ । हन॑वः । न । प्र॒ति॒ऽधृषे॑ । सु॒ऽजम्भः॑ । सह॑सः । य॒हुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिशानो वृषभो यथाग्निः शृङ्गे दविध्वत् । तिग्मा अस्य हनवो न प्रतिधृषे सुजम्भ: सहसो यहुः ॥
स्वर रहित पद पाठशिशानः । वृषभः । यथा । अग्निः । शृङ्गे । दविध्वत् । तिग्माः । अस्य । हनवः । न । प्रतिऽधृषे । सुऽजम्भः । सहसः । यहुः ॥ ८.६०.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as a bull whets and brandishes his horns against his rival, so does Agni shake his opponents. Fiery is his visor, strong his jaws, mighty his courage, he is invincible, uncounterable, irresistible.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर परम न्यायी आहे. केवळ प्रार्थनेने तो प्रसन्न होत नाही. जो त्याच्या आज्ञेनुसार चालतो तोच त्याला प्रिय असतो. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
ईश्वराद् बिभेतव्यमित्यनया शिक्षते ।
पदार्थः
अग्निः । दुष्टान् । दविध्वत्=कम्पयति । अत्र दृष्टान्तः । यथा शृङ्गे शिशानः=तीक्ष्णीकुर्वन् वृषभो गाः कम्पयति । हे मनुष्याः अस्य हनवः=हनुस्थानीया दन्ताः । तिग्माः=तीव्राः सन्ति । न प्रतिधृषे=निवारयितुमशक्याः । स कीदृशः । सुजम्भः=सुदंष्ट्रः । पुनः । सहसः=जगतः । यहुः=महान् पालकः ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर से डरना चाहिये, यह इससे सिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम ईश्वर से डरो अर्थात् ईश्वर न्यायी है । यदि उससे विपरीत चलोगे, तो वह अवश्य दण्ड देवेगा । (अग्निः) वह सूर्य्यादि अग्नि के समान जाज्वल्यमान है, (दविध्वत्) दुष्टों को सदा कंपाया करता है । (यथा) जैसे (शृङ्गे+शिशानः) सींगों को तेज बनाता हुआ (वृषभः) साँढ गौवों को डराता है । (अस्य+हनवः) इसके हनुस्थानीय दन्त (तिग्माः) बड़े तीव्र हैं, (न+प्रतिधृषे) वे अनिवार्य्य हैं, (सुजम्भः) वह सुदंष्ट्र है और (सहसः) इस संसार का (यहुः) महान् रक्षक है । अतः इसके नियमों को पालो ॥१३ ॥
भावार्थ
ईश्वर परम न्यायी है, केवल प्रार्थना से वह प्रसन्न नहीं होता, किन्तु जो कोई उसकी आज्ञा पर चलता है, वही उसका प्रिय है ॥१३ ॥
विषय
राजा का पराक्रम।
भावार्थ
( यथा वृषभः ) जिस प्रकार विजार सांड ( शृङ्गे शिशानः ) सींग तीक्ष्ण करता हुआ ( दविध्वत् ) शिर चलाता है, और जिस प्रकार ( अग्निः ) अग्नि स्वयं तीक्ष्ण होकर अपने शिखर कंपाता है उसी प्रकार ( शिशानः ) बलको तीक्ष्ण करता हुआ ( अग्निः ) तेजस्वी पुरुष, ( शृङ्गे ) शत्रु हनन के अस्त्र शस्त्रों को कंपावे। ( अस्य ) इसकी ( हनवः ) हननकारिणी सेनाएं ( तिग्माः ) तीखी दाढ़ों के समान ( न प्रति-धृषे ) कभी किसी से पराजित होने के लिये न हों, वह ( सुजम्भः ) दुष्टों को उत्तम रीति से दण्ड देने में समर्थ ( सहसः यहुः ) बल सैन्य को सुसंगत करने में समर्थ हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञाग्नि व रोगकृमिरूप शत्रुविनाश
पदार्थ
[१] (यथा) = जैसे (शृंगे) = सींगों को (शिशानः) = तीक्ष्ण करता हुआ (वृषभः) = बैल (दविध्वत्) = शत्रुओं को कम्पित करता है, इसी प्रकार (अग्निः) = यज्ञाग्नि रोगकृमिरूप शत्रुओं को अपनी तीक्ष्ण ज्वालाओं से विनष्ट करता है। [२] (अस्य) = इस यज्ञाग्नि की (हनवः) = हनुस्थानीय ज्वालाएँ (तिग्मा:) = बड़ी तीक्ष्ण हैं । (न प्रतिधृषे) = शत्रुओं से इनका धर्षण नहीं हो सकता। यह अग्नि (सुजम्भ:) = उत्तम दंष्ट्रा ओंवाला है। (सहसः यहुः) = बल का पुञ्ज है। यह अग्नि बल का पुञ्ज होता हुआ सब शत्रुओं का विनाश करता है।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञाग्नि बल का पुञ्ज हैं। यह ज्वालारूप दंष्ट्राओं से सब रोग कृमिरूप शत्रुओं को विनष्ट करता है।
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