ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 14
न॒हि ते॑ अग्ने वृषभ प्रति॒धृषे॒ जम्भा॑सो॒ यद्वि॒तिष्ठ॑से । स त्वं नो॑ होत॒: सुहु॑तं ह॒विष्कृ॑धि॒ वंस्वा॑ नो॒ वार्या॑ पु॒रु ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । वृ॒ष॒भ॒ । प्र॒ति॒ऽधृषे॑ । जम्भा॑सः । यत् । वि॒ऽतिष्ठ॑से । सः । त्वम् । नः॒ । हो॒त॒रिति॑ । सुऽहु॑तम् । ह॒विः । कृ॒धि॒ । वंस्व॑ । नः॒ । वार्या॑ । पु॒रु ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि ते अग्ने वृषभ प्रतिधृषे जम्भासो यद्वितिष्ठसे । स त्वं नो होत: सुहुतं हविष्कृधि वंस्वा नो वार्या पुरु ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । ते । अग्ने । वृषभ । प्रतिऽधृषे । जम्भासः । यत् । विऽतिष्ठसे । सः । त्वम् । नः । होतरिति । सुऽहुतम् । हविः । कृधि । वंस्व । नः । वार्या । पुरु ॥ ८.६०.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni when you rise and expand no one can brave your flaming jaws. Pray accept our homage and make it fruitful. Give us ample wealth of our choice and desire.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! परमेश्वराच्या न्यायाला घाबरून राहा व आपल्या आवश्यकतेसाठी त्याचीच प्रार्थना करा. ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे अग्ने ! हे वृषभ=कामानां वर्षितः ! ते=तव । जम्भासः=जम्भा दन्ताः । नहि प्रतिधृषे=प्रतिधर्षितुं न शक्या निवारयितुं न शक्या इत्यर्थः । यद्=यस्मात् । त्वं वितिष्ठसे=विविधं तिष्ठसि । सर्वं स्थानमावृत्य तिष्ठसि । हे होतः ! स त्वम् । नोऽस्माकम् । हविः सुहुतम् । कृधि=कुरु । तथा नोऽस्मभ्यम् । वार्य्या=वरणीयानि । पुरु=पुरूणि बहूनि धनानि वंस्व=देहि ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगत (वृषभ) हे निखिल कामवर्षक देव ! दुर्जनों के प्रति जाज्वल्यमान ! (ते) तेरे (जम्भासः) दन्त (नहि+प्रतिधृषे) अनिवार्य्य हैं, उन्हें कोई निवारण नहीं कर सकता, (यत्) क्योंकि (वितिष्ठसे) तू सर्वत्र व्याप्त होकर वर्तमान है, जीवों के सुकर्मों और दुष्कर्मों दोनों को तू देखता है । (होतः) हे स्वयं होता ! (सः+त्वम्) वह तू (हविः) परोपकार और निजोपकार के लिये अग्नि में प्रक्षिप्त घृतादि शाकल्य को (सुहुतम्+कृधि) यथा स्थान में भस्म कर ले जा । हे भगवन् ! (वार्य्या) स्वीकरणीय और (पुरु) बहुत धन सम्पत्ति और विज्ञान (वंस्व) दे ॥१४ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! परमात्मा के न्याय से डरो और अपनी आवश्यकता के लिये उसी के निकट प्रार्थना करो ॥१४ ॥
विषय
राजा का पराक्रम।
भावार्थ
हे ( अग्ने वृषभ ) तेजस्विन् ! हे बलशालिन् ! ( यद्वितिष्ठसे ) जब तू विशेष रूप से शत्रु के विजयार्थ खड़ा हो जाता है तब ( ते जम्भासः ) तेरी दाढ़ों के समान शत्रु को कुचल डालने वाले तेरे शस्त्रादि सैन्यगण ( नहि प्रति-धृषे ) कभी हारने के लिये नहीं हों। ( सः त्वं ) वह तू (नः) हमारे ( होतः ) दातः ( सुहुतं हविः कृधि ) उत्तम रीति से दिये करादि को उत्तम रीति से सफल कर। ( नः पुरुवार्या वंस्व ) हमें बहुत से उत्तम ऐश्वर्य, शत्रुवारक साधन प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भर्ग: प्रागाथ ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९, १३, १७ विराड् बृहती। ३, ५ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ निचृद् बृहती। ७, १९ बृहती। २ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १०, १६ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १४, १८, २० निचृत् पंक्तिः। १२ पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
राष्ट्रयज्ञ का होता राष्ट्रपति
पदार्थ
[१] हे (वृषभ) = वर्षक (अग्ने) = अग्नि ! (ते) = तेरे (जम्भासः) = दंष्ट्रास्थानीय ज्वालाएँ (नहि प्रतिधृषे) = धर्षण के लिए नहीं होतीं, (यद्) = जब तू (वितिष्ठसे) = रोगकृमिरूप शत्रुओं का सामना करती है। अग्नि की ये ज्वालाएँ शत्रुओं को समाप्त करनेवाली होती हैं। इसी प्रकार एक प्रजा पर सुखों का वर्षण करनेवाले अग्रणी राजा के दंष्ट्रास्थानीय अस्त्र जब शत्रुओं पर आक्रमण करते हैं तो ये धर्षणीय नहीं होते। [२] हे (होतः) = राष्ट्रयज्ञ के संचालक राजन् ! (सः त्वं) = वह तू (नः) = हमारे (हविः) = कर रूप में दिये गये हविरूप धन को (सुहुतं कृधि) = सम्यक् हुत कर, अर्थात् कररूप में दिये गये धन को तू राष्ट्रयज्ञ में सम्यक् विनियुक्त कर । (नः) = हमारे लिए (पुरु) = खूब ही वार्यावरणीय धन को (वंस्व) = देनेवाला हो। राजा राष्ट्र की इस प्रकार व्यवस्था करे कि सब प्रजावर्ग उचित धनों को अजत कर सकें।
भावार्थ
भावार्थ-राष्ट्रपति के शस्त्र शत्रुओं से धर्षणीय न हों। वह कर का सद्विनियोग करे। प्रजा के लिए उचित व्यवस्था के द्वारा धनों को प्राप्त करानेवाला हो।
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