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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कलिः प्रगाथः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    व॒यं घा॑ ते॒ अपू॒र्व्येन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि वृत्रहन् । पु॒रू॒तमा॑सः पुरुहूत वज्रिवो भृ॒तिं न प्र भ॑रामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । घ॒ । ते॒ । अपू॑र्व्या । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । पु॒रु॒ऽतमा॑सः । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । व॒ज्रि॒ऽवः॒ । भृ॒ति॑म् । न । प्र । भ॒रा॒म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं घा ते अपूर्व्येन्द्र ब्रह्माणि वृत्रहन् । पुरूतमासः पुरुहूत वज्रिवो भृतिं न प्र भरामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । घ । ते । अपूर्व्या । इन्द्र । ब्रह्माणि । वृत्रऽहन् । पुरुऽतमासः । पुरुऽहूत । वज्रिऽवः । भृतिम् । न । प्र । भरामसि ॥ ८.६६.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 50; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, destroyer of evil and darkness within and without in the outer world, universally adored, wielder of the thunderbolt, we, all together, old and young, offer you in faith new and ever fresh songs of adoration and exaltation as daily obligation in return as thanks for your favours.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वृत्रहन् - वृत्रान् विघ्नान् हन्तीति वृत्रहा । वृत्र = विघ्न, दु:ख, क्लेश, मेघ, अंधकार, अज्ञान इत्यादी । पुरुहूत = पुरु = बहुत = आहूत, पूजित । आम्ही त्या परमदेवाला नवीन नवीन स्तोत्र बनवून ऐकवावे. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे वृत्रहन् ! हे पुरुहूत=बहुहूत बहुपूजित ! हे वज्रिवः=वज्रिवन् महादण्डधर ! भृतिन्न=भृतिमिव= वेतनमिव । पुरुतमासः=पुरुतमाः=पुत्रादिभिर्बहवः । वयम् । घ=खलु ते=त्वदर्थम् । अपूर्व्या=अपूर्वाणि नूतनानि । ब्रह्माणि=स्तोत्राणि । प्रभरामसि=प्रभरामः समर्पयामः ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्य्य ! (वृत्रहन्) हे सर्वदुःखनिवारक (पुरुहूत) हे बहुपूजित हे बहुतों से आहूत (वज्रिवः) हे महादण्डधर भगवन् ! (भृतिम्+न) जैसे नियमपूर्वक लोग वेतन देते हैं, तद्वत् (पुरुतमासः) पुत्र, पौत्र, कलत्र, बन्धु आदिकों से बहुत (वयम्) तेरे उपासक (खलु) हम सब निश्चितरूप से (ते) तुझको (अपूर्व्या) अपूर्व (ब्रह्माणि) स्तोत्र (प्र+भरामसि) समर्पित करते हैं । उन्हें ग्रहण कर और हम जीवों को सुखी रख ॥११ ॥

    भावार्थ

    वृत्रहन्−वृत्रान् विघ्नान् हन्तीति वृत्रहा । वृत्र=विघ्न, दुःख, क्लेश, मेघ, अन्धकार, अज्ञान आदि । पुरुहूत=पुरु=बहुत । हूत=आहूत, पूजित । हम लोगों को उचित है कि उस परमदेव को नवीन-नवीन स्तोत्र बनाकर सुनावें ॥११ ॥

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    विषय

    भोजनवत् नियमानुसार भक्ति का विधान।

    भावार्थ

    हे ( अपूर्व्य ) सबसे पूर्व, एवं सबसे पूर्ण ! हे ( वृत्रहन् ) दुष्टों के नाशक ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों से प्रशंसित ! हे ( वज्रिवः ) शक्तिशालिन् ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( वयं घ पुस्तमासः ) हम उत्तम जन, ( ते ) तेरे लिये ( भृतिं न ) वेतन के समान ही करादि नित्य नियम से ( प्र भरामसि ) प्रदान करें। इसी प्रकार प्रभु की भक्ति भी हम नियम से अपने भोजन के समान ही नित्य किया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    भृतिं न

    पदार्थ

    [१] हे (अपूर्व्य) = अद्भुत (वृत्रहन्) = वासना के विनाशक (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (वयं) = हम (घा) = निश्चय से (ते) = आपके लिए ब्रह्माणि स्तोत्रों को व ज्ञान की वाणियों को (प्रभरामसि) = प्रकर्षेण धारण करते हैं। [२] हे (पुरुहूत) = पालक व पूरक हैं आह्वान जिसका, ऐसे (वज्रिवः) = वज्रहस्त प्रभो ! (पुरुतमासः) = अधिक-से-अधिक पालन व पूरण करनेवाले हम आपकी स्तुति को (भृतिं न) = भृति के समान धारण करते हैं [भ्रियते यया]। यह स्तुति हमारा धारण करनेवाली है, यह जानकर इसमें हम प्रवृत्त होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का स्तवन हमारा भरण करनेवाला हैं । सो इसे हम भृति के समान धारण करते हैं ।

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