ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 66/ मन्त्र 9
कदू॒ न्व१॒॑स्याकृ॑त॒मिन्द्र॑स्यास्ति॒ पौंस्य॑म् । केनो॒ नु कं॒ श्रोम॑तेन॒ न शु॑श्रुवे ज॒नुष॒: परि॑ वृत्र॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ऊँ॒ इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । अकृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । अ॒स्ति॒ । पौंस्य॑म् । केनो॒ इति॑ । नु । क॒म् । श्रोम॑तेन । न । शि॒श्रु॒वे॒ । ज॒नुषः॑ । परि॑ । वृ॒त्र॒ऽहा ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदू न्व१स्याकृतमिन्द्रस्यास्ति पौंस्यम् । केनो नु कं श्रोमतेन न शुश्रुवे जनुष: परि वृत्रहा ॥
स्वर रहित पद पाठकत् । ऊँ इति । नु । अस्य । अकृतम् । इन्द्रस्य । अस्ति । पौंस्यम् । केनो इति । नु । कम् । श्रोमतेन । न । शिश्रुवे । जनुषः । परि । वृत्रऽहा ॥ ८.६६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 66; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 49; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 49; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
What wonder work is that which is not the achievement of Indra’s valour? By which person hasn’t his glory been perceived through his wonder deeds? He is the destroyer of evil and darkness by his very nature.
मराठी (1)
भावार्थ
तो ईश्वर सर्व प्रकारे पूर्ण धाम आहे. त्याला आता काही कर्तव्य उरलेले नाही. तो सृष्टीच्या आरंभापासून प्रसिद्ध आहे. त्याचीच उपासना करा. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
ईश्वरस्य पूर्णतां प्रदर्शयति ।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! अस्येन्द्रस्य । कदू नु=किन्नु खलु । पौंस्यम्=पौरुषम् । अकृतमस्ति । तेनेश्वरेण कानि कर्माणि न कृतानि यानीदानीं कर्तव्यानि भवेयुः । तेन सर्वाणि कृतानीत्यर्थः । केनो नु कम्=केन खलु जनेन । श्रोमतेन=श्रवणीयेन कर्मणा । स न । शुश्रुवे=श्रुतोऽस्ति । स हि । जनुषः परि । सृष्टेर्जन्मप्रभृत्येव । वृत्रहा=सर्वविघ्नविनाशकोऽस्तीति विज्ञायते ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
ईश्वर की पूर्णता दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(अस्य+इन्द्रस्य) इस परमात्मा का (कदू+नु) कौनसा (पौंस्यम्) पुरुषार्थ (अकृतम्+अस्ति) करने को बाकी है अर्थात् उसने कौन कर्म अभी तक नहीं किये हैं, जो उसे अब करने हैं । अर्थात् वह सर्व पुरुषार्थ कर चुका है, उसे अब कुछ कर्त्तव्य नहीं । हे मनुष्यों ! (केनो+नु+कम्) किसने (श्रोमतेन) श्रवणीय कर्म के कारण (न+शुश्रुवे) उसको न सुना है, क्योंकि (जन्मनः+परि) सृष्टि के जन्मदिन से ही वह (वृत्रहा) निखिल विघ्नविनाशक नाम से प्रसिद्ध है ॥९ ॥
भावार्थ
वह ईश्वर सब प्रकार से पूर्ण धाम है । उसे अब कुछ कर्त्तव्य नहीं । वह सृष्टि के आरम्भ से प्रसिद्ध है, उसी की उपासना करो ॥९ ॥
विषय
प्रकृति से जगत् का स्रष्टा सर्वोपरि श्रवणीय है।
भावार्थ
( अस्थ ) इस ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् प्रभु का (कत् उ पौंस्यं नु अकृतम् अस्ति ) कौन सा बल का कर्म नहीं किया हुआ है, सब बल के कर्म इसी के किये हैं। वह ( वृत्रहा ) सब विघ्नों और दुष्टों का वारक और दण्ड देने हारा, वह (वृत्रहा) आवरणकारी प्रकृतिमय सलिल को गति देने वाला, उसमें भी व्यापक ( जनुषः परि ) जन्मशील इस चराचर जगत् के ऊपर ( केन उ श्रीमतेन ) भला किस श्रवणीय, वेदगम्य गुण और कर्म से ( न शुश्रुवे ) श्रवण नहीं किया जाता ? उसके सृष्टि, स्थिति संहारादि के सभी कार्य अद्भुत और शास्त्रगम्य हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कलिः प्रागाथ ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३, ५, ११, १३ विराड् बृहती। ७ पादनिचृद् बृहती। २, ८, १२ निचृत् पंक्तिः। ४, ६ विराट् पंक्ति:। १४ पादनिचृत् पंक्ति:। १० पंक्तिः। ९, १५ अनुष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य '
पदार्थ
[१] (कत् उ नु) = कौन-सा निश्चय से (पौंस्यं) = पौरुष का काम - वृत्र आदि का विनाश रूप कर्म, (अस्य) = इस (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यशाली प्रभु का अकृतम् अस्ति न किया हुआ है ? अर्थात् वृत्रवध आदि सब पौरुष के कर्म इस प्रभु द्वारा ही तो किये जाते हैं। [२] (केन उ नु श्रोमतेन) = और निश्चय से किस श्रावणीय पौरुष के कार्य से (न शुश्रुवे) = वे प्रभु सुने नहीं जाते। (जनुषः परि) = जन्म से लेकर ही, अर्थात् अब ही उस प्रभु का हृदयों में कुछ प्रादुर्भाव होता है, तभी ही वे प्रभु (वृत्रहा) = वासना का विनाश करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ-वासनाविनाश आदि सब शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभु ही हैं। वे प्रभु हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होते ही सब शत्रुओं का विनाश कर देते हैं।
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