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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 21
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न॒हि ष्म॒ यद्ध॑ वः पु॒रा स्तोमे॑भिर्वृक्तबर्हिषः । शर्धाँ॑ ऋ॒तस्य॒ जिन्व॑थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । स्म॒ । यत् । ह॒ । वः॒ । पु॒रा । स्तोमे॑भिः । वृ॒क्त॒ऽब॒र्हि॒षः॒ । शर्धा॑न् । ऋ॒तस्य॑ । जिन्व॑थ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि ष्म यद्ध वः पुरा स्तोमेभिर्वृक्तबर्हिषः । शर्धाँ ऋतस्य जिन्वथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । स्म । यत् । ह । वः । पुरा । स्तोमेभिः । वृक्तऽबर्हिषः । शर्धान् । ऋतस्य । जिन्वथ ॥ ८.७.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 21
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वृक्तबर्हिषः, वः) दत्तासना यूयम् (स्तोमेभिः) स्तोत्रैः प्रार्थिताः (यत्, ह) यतो हि (ऋतस्य) अन्यदीययज्ञस्य (शर्धान्) बलानि (जिन्वथ) वर्धयेयुः (नहि, स्म) एतन्नहि सम्भवति ॥२१॥

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    विषयः

    युवैव सन् धर्मं कुर्यात् ।

    पदार्थः

    हे वृक्तबर्हिषः=यज्ञे नियुक्ता मरुतः । पुरा+वः=युष्माकम् । यत्+ह । शर्धा आसन् । तान् । ऋतस्य=सत्यस्य । शर्धान्=बलानि । नहि ष्म स्तोमैः । जिन्वथ=प्रीणयथ ॥२१ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वृक्तबर्हिषः, वः) पृथक् दिया गया है आसन जिनको, ऐसे आप (स्तोमेभिः) मेरे स्तोत्रों से प्रार्थित होकर (यत्, ह) जो (ऋतस्य) दूसरों के यज्ञों के (शर्धान्) बलों को (जिन्वथ) बढ़ावें (नहि, स्म) ऐसा नहीं सम्भावित है ॥२१॥

    भावार्थ

    हे असाधारण उच्च आसनवाले विद्वानो ! आप हमारे यज्ञों में सम्मिलित होकर शोभा को बढ़ावें और हम लोगों को अपने उपदेशों द्वारा शुभ ज्ञान प्रदान करें ॥२१॥

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    विषय

    युवा ही धर्म करे ।

    पदार्थ

    (वृक्तबर्हिषः) हे यज्ञ में नियुक्त प्राणो ! (पुरा) पूर्वकाल में (वः) आपके (यद्+ह) जो बल थे, उन (ऋतस्य) सत्य के (शर्धान्) बलों को (स्तोमैः) स्तुति द्वारा (नहि+स्म+जिन्वथ) इस समय आप पुष्ट नहीं करते हैं ॥२१ ॥

    भावार्थ

    आशय यह है कि मनुष्य का प्राणबल सदा समान नहीं रहता, अतः बलयुक्त युवावस्था में ही धर्मकार्य्य करे, वृद्धावस्था के लिये धर्म को न रख देवे । अनेक उपायों से भी वार्धक्य मिट नहीं सकता ॥२१ ॥

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    विषय

    उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वृक्तबर्हिषः ) यज्ञशील और शत्रुरहित वीर जनो ! ( पुरा ) पहिले के समान ही (व:) आप लोगों के ( यत् नहि स्म ) जो बल नहीं प्राप्त हो उन ( ऋतस्य ) धन, अन्न और सत्य ज्ञान के (शर्धान्) नाना बलों को ( स्तोमेभिः ) स्तुति वचनों द्वारा ( जिन्वथ ) बढ़ाओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोम ऋत के शर्ध

    पदार्थ

    [१] हे (वृक्तबर्हिषः) = हृदयक्षेत्र से वासना के घास-फूस को उखाड़ देनेवाले प्राणो ! आप उन (ऋतस्य) = ऋत के, यज्ञ के व सत्य के (शर्धान्) = बलों को (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (जिन्वथ) = प्राप्त कराते हो, (यत् ह) = जो निश्चय से (वः पुरा नहि स्म) = आपकी साधना से पूर्व नहीं होते। [२] प्राणसाधना के होने पर हमारे जीवन से असत्य दूर हो जाता है। प्राणापान को 'नासत्या' कहा ही है, 'न असत्या' = जिनके कारण असत्य नहीं रहता। प्राणसाधना से ही स्तुति वृत्ति उत्पन्न होती है। यह असत्य से दूर रहनेवाला स्तोता शत्रुओं को कुचलनेवाले बलों को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से प्रभु-स्तवन की वृत्ति जागती है तथा सत्य का बल प्राप्त होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maruts, isn’t it true that seated on the holy grass you have been augmenting the power and efficacy of the yajna of truth by your exhortations ever before?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे असाधारण उच्च आसनयुक्त विद्वानांनो! तुम्ही आमच्या यज्ञात सम्मीलित होऊन शोभा वाढवावी. तुम्ही आम्हाला आपल्या उपदेशाद्वारे शुभ ज्ञान द्यावे ॥२१॥

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