ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 26
ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒शना॒ यत्प॑रा॒वत॑ उ॒क्ष्णो रन्ध्र॒मया॑तन । द्यौर्न च॑क्रदद्भि॒या ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒सना॑ । यत् । प॒रा॒ऽवतः॑ । उ॒क्ष्णः । रन्ध्र॑म् । अया॑तन । द्यौः । न । च॒क्र॒द॒त् । भि॒या ॥
स्वर रहित मन्त्र
उशना यत्परावत उक्ष्णो रन्ध्रमयातन । द्यौर्न चक्रदद्भिया ॥
स्वर रहित पद पाठउसना । यत् । पराऽवतः । उक्ष्णः । रन्ध्रम् । अयातन । द्यौः । न । चक्रदत् । भिया ॥ ८.७.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 26
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यत्) यदा (उशना) रक्षां कामयमानाः ते (उक्ष्णः) कामानां वर्षितुः स्वरथस्य (रन्ध्रम्) मध्यभागम् (अयातन) यान्ति तदा (परावतः) दूरादेव (द्यौः, न) मेघाच्छन्ना द्यौरिव (भिया) तद्भयेन अयं लोकः (चक्रदत्) कम्पितो भवति ॥२६॥
विषयः
पुनस्तदेव दर्शयति ।
पदार्थः
हे मरुतः । यद्=यदा । यूयम् । उशना=उशनसः कामयमाना इव । परावतः=कस्माच्चिदपि दूरदेशात् आगत्य । उक्ष्णः=वर्षितुः आकाशस्य । रन्ध्रम्=मध्यम्=अयातन= अगच्छन्=गच्छन्ति । तदा । द्यौर्न=द्यौरिव पृथिव्यपि । भिया=भयेन । चक्रदत्=अशब्दयत्=कम्पत इत्यर्थः ॥२६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्) जब (उशना) रक्षा को चाहते हुए योधालोग (उक्ष्णः) कामनाओं की वर्षा करनेवाले अपने रथ पर (रन्ध्रम्) मध्यभाग में (अयातन) जाकर बैठते हैं तब (परावतः) दूर से ही (द्यौः, न) मेघाच्छन्न द्युलोक के समान (भिया) भय से यह लोक भी (चक्रदत्) आन्दोलित होने लगता है ॥२६॥
भावार्थ
“उक्षति सिञ्चति कामान् इति उक्षा”=जो नाना प्रकार की कामनाओं की वृष्टि करे, उसका नाम “उक्षा” है। इस प्रकार के कामना देनेवाले यानों पर आरूढ़ होकर जो योद्धा लोग युद्ध में जाते हैं, उनसे सब भयभीत होते और वे ही विजय को प्राप्त होते हैं, अन्य नहीं। स्मरण रहे कि “उक्षा” शब्द का अर्थ यहाँ सायणाचार्य्य ने कामनाओं की वृष्टि करनेवाला किया है। जो लोग उक्त शब्द को बलीवर्द=बैल का वाचक मानकर गवादि पशुओं का बलिदान कथन करते हैं, उनका कथन वेदाशय से सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि “उक्षा” शब्द सिञ्चन करने तथा कामनाओं की पूर्ति करने के अर्थों में आता है, किसी पशु-पक्षी के बलिदान के लिये नहीं ॥२६॥
विषय
पुनः उसी को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
पुनः मरुत् का वर्णन करते हैं । हे मरुतो ! (यत्) जब मानो, (उशना) इच्छा करते हुए आप (परावतः) किसी दूरदेश से आकर (उक्ष्णः) वर्षाकारी आकाश के (रन्ध्रम्) मध्य (अयातन) आते हैं, तब (द्यौः+न) द्युलोक के समान पृथिवी भी (भिया) भय से (चक्रदत्) काँपने लगती है ॥२६ ॥
भावार्थ
यह भी स्वाभाविक वर्णन है । वायु यद्यपि सर्वत्र पृथिवी पर विद्यमान है, तथापि जब भारतवर्ष में पूर्वीय या पश्चिमीय वायु चलता है, तो निश्चय नहीं होता कि यह कहाँ से चलकर आया है । ज्यों-ज्यों दिन बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों वायु का वेग तेज होता जाता है, यहाँ तक की मध्याह्न में वैशाख, ज्येष्ठ का वायु अतिशय असह्य हो जाता । लोग गृह बन्द कर बैठते हैं । यह दृश्य भारतवासियों को अच्छे प्रकार विदित है । शरीर के भीतर भी जब वायु का प्रकोप होता है, तब यही दशा होती है ॥२६ ॥
विषय
उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार पवन गण ( परावतः ) दूर विद्यमान ( उक्ष्णा) जल-सेचक मेघ के ( रन्ध्रम् ) छिद्र भाग की ओर ( उशनाः ) तीव्र कान्तियुक्त होकर जाते हैं । तब ( द्यौः न भिया चक्रदत् ) आकाश व पृथिवी भी भय से कांप जाती या गूंज उठती है उसी प्रकार आप लोग भी ( उशनाः ) राज्य-विजय की कामना करते हुए हे वीरो ! ( यत् ) जब ( परावतः उक्ष्णः ) दूर देश से बलवान् शत्रु के ( रन्ध्रम् ) छिद्र या मर्मस्थान को पाकर ( अयातन ) प्रयाण करो, उस पर चढ़ाई करो तब ( द्यौः न ) मानो समस्त पृथिवी और आकाश भी ( भिया चक्रदत् ) भय से गूंज उठे और कांप उठे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सूर्य द्वार से आगे बढ़ना
पदार्थ
[१] (उशनाः) = प्रभु प्राप्ति की कामनावाला व्यक्ति (यत्) = जब (परावतः उक्ष्णः) = उस सुदूर सूर्य के (रन्ध्रम्) = [छिद्र] द्वार को (अयातन) = प्राप्त होता है तो (द्यौः न) = प्रकाशमय जीवनवाला होता हुआ 'विरज' होता हुआ (अभिया) = कहीं पतन न हो जाये इस भय से (चक्रद्) = प्रभु का आह्वान करता है। [२] साधना में उन्नत होता हुआ पुरुष शरीर में सब से निचले 'मूलाधार चक्र' से ऊपर उठता हुआ सब से ऊपर 'सूर्य चक्र' [सहस्रार चक्र] में पहुँचता है तो अद्भुत सिद्धियों को प्राप्त करता है। यहाँ सिद्धियों में फँस जाने का अधिक से अधिक भय होता है। इस भय से यह प्रभु का आह्वान करता है कि हे प्रभो ! मैं इन सिद्धियों में आसक्त न होकर आपकी ओर आगे और आगे बढ़ता ही जाऊँ। यदि नहीं फँसता तो अमृत प्रभु को प्राप्त करता ही है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले बनकर प्राणसाधना के द्वारा शरीरस्थ सूर्य द्वार से ऊपर उठें। 'सिद्धियों में न गिर जायें' सो प्रभु का आराधन करें। प्रकाशमय जीवनवाले बनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Impassioned for action when the virile Maruts rush to a region of low pressure in the sky from afar, the cloud, as the higher regions, roars under fear and pressure.
मराठी (1)
भावार्थ
‘उक्षन्ति सिञ्चन्ति कामान् इति उक्षा’ = जो नाना प्रकारच्या कामनांची वृष्टी करतो त्याचे ‘उक्षा’ हे नाव आहे. या प्रकारच्या कामना पूर्ण करणाऱ्या यानांवर आरूढ होऊन जे योद्धे युद्धात जातात त्यांना पाहून सर्व भयभीत होतात व त्यांनाच विजय मिळतो, इतरांना नाही.
टिप्पणी
उक्षा शब्दाचा अर्थ सायणाचार्यांनी ही कामनांची वृष्टी करणारा असा केलेला आहे. जे लोक वरील शब्दाला बलीवर्द बैलाचा वाचक मानून गाय इत्यादी पशूंचे बलिदान म्हणतात, त्यांचे कथन वेराविरुद्ध आहे, कारण ‘उक्षा’ शब्द सिंचन करणे व कामनांची पूर्ती या अर्थाने आलेला आहे. एखाद्या पशु–पक्ष्याच्या बलिदानासाठी नव्हे ॥२६॥
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