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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 27
    ऋषिः - पुनर्वत्सः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ नो॑ म॒खस्य॑ दा॒वनेऽश्वै॒र्हिर॑ण्यपाणिभिः । देवा॑स॒ उप॑ गन्तन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । म॒खस्य॑ । दा॒वने॑ । अश्वैः॑ । हिर॑ण्यपाणिऽभिः । देवा॑सः । उप॑ । ग॒न्त॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो मखस्य दावनेऽश्वैर्हिरण्यपाणिभिः । देवास उप गन्तन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । मखस्य । दावने । अश्वैः । हिरण्यपाणिऽभिः । देवासः । उप । गन्तन ॥ ८.७.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 27
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (देवासः) हे दिव्यपुरुषाः ! यूयम् (दावने) स्वशक्तिदानाय (हिरण्यपाणिभिः) हिरण्यहस्ताभिः (अश्वैः) व्यापकशक्तिभिः (नः, मखस्य) नो यज्ञस्य (आ) अभिमुखम् (उपगन्तन) आगच्छत ॥२७॥

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    विषयः

    प्राणा निरोद्धव्या इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे देवासः=हे देवाः प्राणाः । नोऽस्माकम् । मखस्य=यज्ञस्य । दावने=दानाय । हिरण्यपाणिभिः=स्वर्णालङ्कृतैः । अश्वैरिन्द्रियैः सह । उपागन्तन=उपागच्छत=समीपमागच्छत । शरीर एव स्थिता भवतेत्यर्थः ॥२७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (देवासः) हे दिव्यपुरुषो ! आप (दावने) अपनी शक्ति देने के लिये (हिरण्यपाणिभिः) हिरण्य जिनके हाथ में है, ऐसी (अश्वैः) व्यापकशक्तियों सहित (नः, मखस्य) हमारे यज्ञ के (आ) अभिमुख (उपगन्तन) आवें ॥२७॥

    भावार्थ

    दैवी शक्तियों से सम्पन्न पुरुषों के हाथ में ही ऐश्वर्य्य तथा हिरण्यादि दिव्य पदार्थ होते हैं, अत एव ऐसे विभूतिसम्पन्न तथा दिव्यशक्तिमान् देवताओं को यज्ञ में अवश्य निमन्त्रित करके बुलाना चाहिये, ताकि उनके उपदेश से प्रजाजन लाभ उठावें ॥२७॥

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    विषय

    इन्द्रियों को रोके, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (देवासः) हे देवो ! हे प्राणो ! (नः) हमारे (मखस्य) यज्ञ की सहायता के लिये आप सब (हिरण्यपाणिभिः) स्वर्णालङ्कृत अर्थात् सुवर्णवत् हितकारी (अश्वैः) इन्द्रियों के साथ (उपागन्तन) समीप में आवें ॥२७ ॥

    भावार्थ

    इसका आशय यह है कि प्राणायाम भी एक यज्ञ है, इसको भी विधिपूर्वक करें । प्रतिक्षण मन इधर-उधर भागा करते हैं । उच्छृङ्खल अश्व के समान ये इन्द्रियगण बड़े वेग से चारों तरफ दौड़ते हैं, अतः मन सहित प्रथम सब इन्द्रियों को वश में करके तब किसी यज्ञ में प्रवृत्त होवें ॥२७ ॥

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    विषय

    उन की तुलना से सज्जनों, वीरों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( देवासः ) विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( नः ) हमारे ( मखस्य ) यज्ञ के निमित्त (दावने) दान देने के लिये ( हिरण्य-पाणिभिः ) हितकारी उत्तम पदार्थों को हाथ में लिये ( अश्वैः ) उत्तम वेगयुक्त अश्वों से हमारे ( उप गन्तन ) समीप आया करो।

    टिप्पणी

    हिरण्य-पाणिभिरिति देवान् विशिनष्टि नाश्वान् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, ३—५, ७—१३, १७—१९, २१, २८, ३०—३२, ३४ गायत्री । २, ६, १४, १६, २०,२२—२७, ३५, ३६ निचृद् गायत्री। १५ पादनिचृद् गायत्री। २९, ३३ आर्षी विराड् गायत्री षट्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    यज्ञ-वीर्य-ज्योति

    पदार्थ

    [१] हे (देवास:) = दिव्य गुणों को उत्पन्न करनेवाले प्राणो ! आप (नः) = हमारे लिये (मखस्य दावने) = यज्ञों के देने के निमित्त, हमारे में यज्ञिय भावनाओं को जन्म देने के लिये (आ उपगन्तन) = सर्वथा प्राप्त होवो। इस प्राणसाधना के द्वारा ही यज्ञिय भावना का उदय होता है। [२] हे प्राणो ! (हिरण्यपाणिभिः) = [हिरण्यं वै वीर्यं, हिरण्यं वै ज्योतिः] वीर्य व ज्योति को, शक्ति व प्रकाश को हाथ में लिये हुए (अश्वैः) = इन्द्रियाश्वों से आप हमें प्राप्त होवो । प्राणसाधना से कर्मेन्द्रियाँ शक्तिशाली बनती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानदीप्त होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से यज्ञिय वृत्ति का जन्म होता है। यह साधना हमारी इन्द्रियों को उत्तम बनाती है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divinities of power and generous splendour, to augment and energise our yajna, pray come by motive forces of golden hoof and golden wheel and bless us in person.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    दैवी शक्तीने संपन्न पुरुषाजवळ ऐश्वर्य व हिरण्य इत्यादी दिव्य पदार्थ असतात. त्यासाठी अशा विभूतिसंपन्न व दिव्य शक्तिमान देवतांना (दिव्य पुरुषांना) यज्ञात अवश्य निमंत्रित केले पाहिजे, कारण त्यांच्या उपदेशाचा प्रजेने लाभ घ्यावा ॥२७॥

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