ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 71/ मन्त्र 10
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीळहौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अच्छा॑ नः शी॒रशो॑चिषं॒ गिरो॑ यन्तु दर्श॒तम् । अच्छा॑ य॒ज्ञासो॒ नम॑सा पुरू॒वसुं॑ पुरुप्रश॒स्तमू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । नः॒ । शी॒रऽशो॑चिषम् । गिरः॑ । य॒न्तु॒ । द॒र्श॒तम् । अच्छ॑ । य॒ज्ञासः॑ । नम॑सा । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । पु॒रु॒ऽप्र॒श॒स्तम् । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा नः शीरशोचिषं गिरो यन्तु दर्शतम् । अच्छा यज्ञासो नमसा पुरूवसुं पुरुप्रशस्तमूतये ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । नः । शीरऽशोचिषम् । गिरः । यन्तु । दर्शतम् । अच्छ । यज्ञासः । नमसा । पुरुऽवसुम् । पुरुऽप्रशस्तम् । ऊतये ॥ ८.७१.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 71; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let all our songs of adoration rise fast to the refulgent and glorious Agni. Let our yajna with homage and havi move and reach the universally adored and universally honoured Agni for the sake of universal protection.
मराठी (1)
भावार्थ
आमचे जितके शुभ कर्म धन व पुत्र इत्यादी आहेत ते सर्व ईश्वरासाठीच असावेत. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! नोऽस्माकम् । गिरः । ऊतये=रक्षायै तमग्निम् । अच्छ=अभिलक्ष्य । यन्तु । एवमेव । यज्ञासः=यज्ञाः । नमसा=सत्कारेण सह । तमच्छ यन्तु । कीदृशं तम् । शीरशोचिषम्=व्याप्ततेजस्कम् । पुनः । दर्शतं=दर्शनीयम् । पुरुवसुम्=बहुधनम् । पुरुप्रशस्तम्=बहुभिः प्रशंसनीयम् ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! (नः) हम लोगों की स्तुति प्रार्थना और विनयवाक्य (अच्छ) उस ईश्वर की ओर जाएँ, (शीरशोचिषम्) जिसका तेज सर्वत्र व्याप्त है और जो (दर्शतम्) परम दर्शनीय है तथा (यज्ञासः) हमारे सर्व यज्ञादि शुभकर्म (नमसा) आदर के साथ (अच्छ) उस परम पिता की ओर जाएँ, जो ईश (पुरुवसुम्) समस्त सम्पत्तियों का स्वामी है और (ऊतये) अपनी-अपनी रक्षा और साहाय्य के लिये (पुरुप्रशस्तम्) जिसकी स्तुति सब करते हैं ॥१० ॥
भावार्थ
हमारे जितने शुभकर्म धन और पुत्रादिक हों, वे सब ईश्वर के लिये ही होवें ॥१० ॥
विषय
उस के आवश्यक गुणों का वर्णन।
भावार्थ
( नः गिरः ) हमारी वाणियां सदा ( शीर-शोचिषं ) व्यापक तेज वाले, ( दर्शतम् ) दर्शनीय को ( अच्छ यन्तु ) लक्ष्य करके प्रकट हों। और ( ऊतये ) रक्षा के निमित्त हमारे ( यज्ञासः ) समस्त यज्ञ, सत्संग, आदर-सत्कार भी ( नमसा ) विनयपूर्वक ( पुरु-वसुं पुरु-प्रशस्तं ) बहुत से ऐश्वर्यों से युक्त और बहुत से प्रशंसित स्वामी को ही प्राप्त हों। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतर ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ७ विराड् गायत्री। २, ६, ८, ९ निचृद् गायत्री। ३, ५ गायत्री। १०, १०, १३ निचृद् बृहती। १४ विराड् बृहती। १२ पादनिचृद् बृहती। ११, १५ बृहती॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
गिरः-यज्ञासः
पदार्थ
[१] (नः गिरः) = हमारी ज्ञानपूर्वक उच्चारित स्तुतिवाणियाँ (शीरशोचिषं) = काम-क्रोध आदि के विनाशक ज्ञानदीप्तिवाले (दर्शतम्) = दर्शनीय प्रभु की (अच्छा) = ओर (यन्तु) = जाएँ प्राप्त हों। हम प्रभु का स्तवन करें। [२] (नमसा) = नमन के साथ (यज्ञासः) = यज्ञ भी उस (पुरुवसुं) = पालक व पूरक धनोंवाले (पुरुप्रशस्तं) = अतिशयेन प्रशस्त प्रभु को अच्छा [ यन्तु ] प्राप्त हों, अर्थात् हम नमन के साथ यज्ञों के द्वारा प्रभु को प्राप्त करें। ऊतये ये प्रभु ही हमारे रक्षण के लिए हैं। हम प्रभु का उपासन करते हैं, प्रभु हमारा रक्षण।
भावार्थ
भावार्थ- स्तुतिवाणियों, यज्ञों व नमन के द्वारा हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें सब आवश्यक धनों को [पुरुवसु] प्राप्त कराके तथा प्रशस्त जीवनवाला [ पुरुप्रशस्त] बनाकर रक्षित करेंगे।
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