ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 13
यो वां॒ रजां॑स्यश्विना॒ रथो॑ वि॒याति॒ रोद॑सी । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वा॒म् । रजां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । रथः॑ । वि॒ऽयाति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वां रजांस्यश्विना रथो वियाति रोदसी । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥
स्वर रहित पद पाठयः । वाम् । रजांसि । अश्विना । रथः । विऽयाति । रोदसी इति । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Come by that chariot of yours which goes around to various regions of the universe and specially goes over the tracks of heaven, earth and sky. Pray let your protections be with us at the closest wherever you roam around.
मराठी (1)
भावार्थ
विमान व रथ असा बनवावा की ज्याची तिन्ही लोकांत गती असावी. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विना=अश्विनौ ! वां=युवयोः । यो रथः । रजांसि=विविधान् लोकान् । तथा रोदसी=द्यावापृथिव्यौ च । वियाति=विशेषेण गच्छति । तेन जवीयसा रथेन अस्मानागच्छतम् । अन्ति० ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे राजा+अमात्य ! (वाम्) आप दोनों का (यः+रथः) जो रथ (रजांसि) विविध लोकों में तथा (रोदसी) द्युलोक और पृथिवी के सर्व भागों में (वि+याति) विशेषरूप से जाता आता है, उस परम वेगवान् रथ के द्वारा हमारे निकट आवें ॥१३ ॥
भावार्थ
विमान या रथ वैसा बनावे, जिसकी गति तीन लोक में अहत हो ॥१३ ॥
विषय
स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।
भावार्थ
हे (अश्विना) वेगयुक्त साधनों और अश्वादि के ज्ञाता जनो ! ( यः ) जो ( वां ) तुम दोनों का ( रथः ) रथ ( रजांसि वि-याति ) नाना लोकों को प्राप्त होता है, वही (रोदसि वि-याति) आकाश और पृथिवी पर भी विशेष रूप से जावे। ( वाम् सद् अवः अन्ति भूतु ) आप दोनों का उत्तम गमनागमन सदा होता रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
रजांसि वियाति
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो (यः) = जो (वां) = आपका (रथः) = यह शरीररूप रथ है, अर्थात् जिस शरीररूप रथ में प्राणसाधना नियम से चलती है, वह रथ (रजांसि) [ज्योतिरज उच्यते रजते: नि० ४.२९] = ज्योतियों को (वियाति) = विशेष रूप से प्राप्त होता है। प्राणसाधना से दोषों का दहन होकर यह रथ ज्योतिर्मय हो उठता है। [२] यह प्राणापान का रथ (रोदसी) = द्यावापृथिवी को मस्तिष्क व शरीर को विशेष रूप से प्राप्त होता है। प्राणसाधना से मस्तिष्क बनता है, तो शरीर सबल होता है। हे प्राणापानो! (वाम् अवः) = आपका रक्षण (सत्) = उत्तम है और यह (अन्ति भूतु) = हमें समीपता से प्राप्त हो।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से जीवन ज्योतिर्मय बनता है। मस्तिष्क दीप्त होता है और शरीर सबल बनता है।
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