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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒रु॒णप्सु॑रु॒षा अ॑भू॒दक॒र्ज्योति॑ॠ॒ताव॑री । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒रु॒णऽप्सुः॑ । उ॒षाः । अ॒भू॒त् । अकः॑ । ज्योतिः॑ । ऋ॒तऽव॑री । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरुणप्सुरुषा अभूदकर्ज्योतिॠतावरी । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरुणऽप्सुः । उषाः । अभूत् । अकः । ज्योतिः । ऋतऽवरी । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The golden glory of the dawn is risen and brings in the light according to the law divine. Let your blessings and protections ever be closest to us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा व राजपुरुष यांनी उष:कालापासून शिक्षण घेऊन वेळेवर काम करावे. ॥१६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे राजामात्यौ ! दृश्यतां सृष्टेर्विभूतिः कार्य्यपरायणता चेति शिक्षते । यथा−उषा ऋतावरी=परमसत्यास्ति । समानकाले सदाऽऽगच्छति । नालस्यं कदापि विदधाति । पुनः । अरुणाप्सुः=शुभवर्णा अभूत् । पुनश्च । ज्योतिः=प्रकाशञ्च । अकः=करोति । ईदृशे काले युवयो रक्षयाऽवश्यं भाव्यम् ॥१६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे राजा अमात्य ! सृष्टि की विभूति देखिये । (उषाः) प्रातःकालरूपा देवी (ऋतावरी) परम सत्या है, समानकाल में वह सदा आती है । आलस्य कभी नहीं करती । पुनः (अरुणाप्सुः) वह शुभ्रवर्णा (अभूत्) हुई पुनः (ज्योतिः) प्रकाश (अकः) करती है । ऐसे पवित्र काल में आपकी ओर से रक्षा अवश्य होनी चाहिये ॥१६ ॥

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    विषय

    स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( उषा ) प्रभात वेला की सूर्य कान्ति (ऋत-वरी) तेजस्विनी, ( अरुण-प्सुः ) अरुण प्रकाश वाली होती और ( ज्योतिः अकः ) प्रकाश करती है उसी प्रकार ( ऋत-वरी ) सत्य ज्ञान को धारण करने चाली ( उषाः ) कमनीय कान्ति से युक्त ( अरुणप्सुः ) अरुण वर्ण की सुन्दर रूपवती ( अभूत् ) हो वह ( ज्योतिः अकः ) सत्य ज्ञान का प्रकाश करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अरुणप्सु + ऋत+ज्योति

    पदार्थ

    [१] हे प्राणापानो! आपके अनुग्रह से (उषाः) = उषाकाल हमारे लिए (अरुणप्सुः) = तेजोमय रूपवाला (अभूत्) = हो। हम उषा में प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों और उषा के समान ही दीप्त रूपवाले बनें। हमारे लिए (ऋतावरी) = ऋत का पालन करानेवाली यह उषा (ज्योतिः अकः) = प्रकाश को करती है। उषाकाल में प्राणायाम करने पर जीवन ऋतमय [यज्ञमय] ज्योतिवाला बनता है। [२] हे प्राणापानो! (वाम्) = आपका (अवः) = रक्षण (सत्) = उत्तम है। वह रक्षण (अन्ति भूतु) = हमें समीपता से प्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषाकाल में प्रबुद्ध होकर हम प्राणसाधना करके दीप्त रूपवाले, ज्योतिर्मय व ऋतमय जीवनवाले बनें।

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