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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 17
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒श्विना॒ सु वि॒चाक॑शद्वृ॒क्षं प॑रशु॒माँ इ॑व । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विना॑ । सु । वि॒ऽचाक॑शत् । वृ॒क्षम् । प॒र॒शु॒मान्ऽइ॑व । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना सु विचाकशद्वृक्षं परशुमाँ इव । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना । सु । विऽचाकशत् । वृक्षम् । परशुमान्ऽइव । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 17
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, the sun rises and dispels the darkness as an axeman fells the tree. Let your boons and blessings ever be with us at the closest.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा व राजपुरुषांनी सूर्यासारखे नियम पाळून आपले कर्तव्य पार पाडावे. ॥१७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अश्विनौ, दृश्यतां सूर्य्यस्य कार्य्यम् । सु=सुष्ठु । विचाकशत्=विशेषेण दीप्यमानः सूर्य्यः । तमोराशिं निवारयतीति शेषः । उपमया एषोऽर्थो लभ्यते । इव=यथा । परशुमान्=प्रशस्तकुठारवान् पुरुषो वृक्षं छिनत्ति । तद्वदित्यर्थः ॥१७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अश्विना) हे राजा अमात्य ! सूर्य्य का कार्य्य देखिये ! (सु) अच्छे प्रकार (विचाकशत्) विशेषरूप से दीप्यमान यह सूर्य्य अन्धकार का निवारण कर रहा है । यहाँ दृष्टान्त देते हैं (इव) जैसे (परशुमान्) उत्तम कुठारधारी पुरुष (वृक्षम्) वृक्ष को काटता है । तद्वत् सूर्य्य भी मानो, तमोवृक्ष को काट रहा है । तद्वत् आप भी प्रजाओं के क्लेशों को दूर कीजिये ॥१७ ॥

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    विषय

    स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) सूर्य चन्द्रवत् ज्ञानी पुरुषो ! ( परशुमान् इव वृक्षं ) परशु वाला पुरुष जिस प्रकार वृक्ष को काटता है उसी प्रकार सूर्य चन्द्रवत् ज्ञान-ज्योति वाला पुरुष (सु वि-चाकशत्) प्रकाशमान हो, अज्ञानतम को नाश करता है। (वाम् अवः सत् अन्ति भूतु ) तुम्हारा तेज सदा तुम्हारे वा हमारे समीप हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृक्षं परशुमान् इव

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आपका आराधक (सुविचाकशत्) = उत्तम प्रकाशमय जीवनवाला होता हुआ अज्ञानान्धकार को इसी प्रकार दूर कर पाता है, (इव) = जैसे (परशुमान्) = कुल्हाड़ेवाला (वृक्षं) = वृक्ष को काट डालता है। [२] (वाम्) = आपका (अवः) = रक्षण (सत्) = उत्तम है। यह रक्षण (अन्ति भूतु) = अन्तिकतम हो- हमें समीपता से प्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से वासनावृक्षों का व्रश्चन करते हुए हम अज्ञानान्धकार को दूर करके प्रकाशमय जीवनवाले बनें।

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