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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒श्विना॑ याम॒हूत॑मा॒ नेदि॑ष्ठं या॒म्याप्य॑म् । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विना॑ । या॒म॒ऽहूत॑मा । नेदि॑ष्ठम् । या॒मि॒ । आप्य॑म् । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना यामहूतमा नेदिष्ठं याम्याप्यम् । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना । यामऽहूतमा । नेदिष्ठम् । यामि । आप्यम् । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेनेही राजा व त्यांच्या अमात्याजवळ जाण्यास संकोच करू नये. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    अहं प्रार्थी यामहूतमा=यामहूतमौ=यामे काले काले अतिशयेन ह्वातव्यौ=प्रार्थयितव्यौ अश्विनौ । यामि=गच्छामि । तथा तयोरेव । नेदिष्ठं=अन्तिकतमम् । आप्यं=बन्धुत्वञ्च । यामि=व्रजामि । अन्ति० ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    मैं एक जन प्रार्थी (यामहूतमा) समय-समय पर अतिशय पुकारने योग्य (अश्विना) महाराज और अमात्य के निकट (यामि) जाता हूँ तथा उनके (आप्यम्) बन्धुत्व को मैं प्राप्त होता हूँ । हे मनुष्यों ! आप भी उनके निकट जाकर निज क्लेश का वृत्त सुनावें और शुभाचरण से उनके बन्धु बनें ॥६ ॥

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    विषय

    स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) उत्तम अश्वों के समान इन्द्रियों और मनों को भी वश करने वाले जनो ! आप दोनों (याम-हूतमा) उत्तम संयम, परस्पर बन्धन को सर्वोत्तम रीति से स्वीकार करने वाले हो। आप दोनों के ( नेदिष्ठं ) अति समीपतम ( आप्यम् ) बन्धुत्व की मैं ( यामि ) प्रार्थना करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'नेदिष्ठ आप्य' की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (याम - हूतमा) = समय पर अतिशयेन आह्वातव्य हो । हमें समय पर आपकी आराधना करनी ही चाहिए। यह नियमपूर्वक प्राणों की साधना ही 'शरीर, मन व बुद्धि' को निर्दोष बनानेवाली है। [२] हे प्राणापानो! मैं आप से (नेदिष्ठम् आप्यं) = अन्तिकतम बन्धुत्व को- उस प्रभु की मित्रता को (यामि) = माँगता हूँ [याचामि] । (वाम्) = आपका (अवः) = रक्षण (सत्) = उत्तम है। वह (अन्ति भूतु) = हमें सदा समीपता से प्राप्त हो। आपके रक्षण के द्वारा ही हमें प्रभु की मित्रता प्राप्त होगी।

    भावार्थ

    भावार्थ:-प्राणसाधना के द्वारा ही हमें प्रभु की मित्रता प्राप्त होती है।

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