ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 7
अव॑न्त॒मत्र॑ये गृ॒हं कृ॑णु॒तं यु॒वम॑श्विना । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑न्तम् । अत्र॑ये । गृ॒हम् । कृ॒णु॒तम् । यु॒वम् । अ॒श्वि॒ना॒ । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवन्तमत्रये गृहं कृणुतं युवमश्विना । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥
स्वर रहित पद पाठअवन्तम् । अत्रये । गृहम् । कृणुतम् । युवम् । अश्विना । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, for the man of threefold deprivation of health care, housing and employment, provide a home of security and maintenance. Pray let your protections be with us always without delay at the closest.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने अनाथांसाठी गृह इत्यादीचा प्रबंध करावा. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
तृतीयं कर्तव्यमुपदिशति, यथा−हे अश्विना=अश्विनौ ! युवं=युवामुभौ । अत्रये=मातृपितृभ्रातृविहीनाय जनसमुदायाय । अवन्तं=सर्वप्रकारै रक्षकं गृहम् । कृणुतं=कुरुतम् । अन्ति० ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
तृतीय कर्त्तव्य का उपदेश देते हैं । (अश्विना) हे राजा अमात्य ! (युवम्) आप दोनों (अत्रये) मातृपितृभ्रातृविहीन जनसमुदाय के लिये (अवन्तम्) सर्वप्रकार से रक्षक (गृहम्) गृह को (कृणुतम्) बनवावें । जिस गृह में पोषण के लिये अन्नपान और विद्यादि का अभ्यास हो ॥७ ॥
विषय
स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।
भावार्थ
हे (अश्विना) उत्तम जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप लोग (अत्रये) इस राष्ट्र आश्रम या गृह में रहने वाले के लिये या ( अत्रये ) तीनों दुःखों से निवृत होने के लिये ( युवं अवन्तं गृहं कृणुतं ) तुम दोनों रक्षा करने वाला घर बनाओ। ( वाम् अवः सद् अन्ति भूतु ) तुम दोनों के समीप उत्तम रक्षा साधन, ज्ञान, व्यवहार होवे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अत्रि का 'अवन् गृह'
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (अत्रये) = 'काम-क्रोध व लोभ' से ऊपर उठे हुए पुरुष के लिए (अवन्तं गृहं कृणुतम्) = रक्षक घर को बनाओ। प्राणसाधना द्वारा यह साधक 'काम- क्रोध व लोभ' से दूर हो तथा इस साधना से यह शरीरगृह रोगाक्रान्त न हो। इसमें रहता हुआ अत्रि रोगरूप शत्रुओं से बचा रहे। [२] हे प्राणापानो! (वाम्) = आपका (अव:) = रक्षण (सत्) = उत्तम है। वह रक्षण (अन्ति भूतु) = हमें समीपता से प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से यह शरीरंगृह सदा, सुरक्षित गृह हो। इसमें आधि-व्याधि से बचे रहें।
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