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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यं त्वा॒ जना॑स॒ ईळ॑ते स॒बाधो॒ वाज॑सातये । स बो॑धि वृत्र॒तूर्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वा॒ । जना॑सः । ईळ॑ते । स॒ऽबाधः॑ । वाज॑ऽसातये । सः । बो॒धि॒ । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा जनास ईळते सबाधो वाजसातये । स बोधि वृत्रतूर्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वा । जनासः । ईळते । सऽबाधः । वाजऽसातये । सः । बोधि । वृत्रऽतूर्ये ॥ ८.७४.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, O lord of light, whom people adore for victory and advancement enthusiastically in spite of limitations, pray enlighten us in the programme of the elimination of evil and darkness from life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानव जाती रोग, शोक इत्यादी अनेक उपद्रवांनी युक्त आहे यासाठी त्या सर्वांची निवृत्ती व्हावी यासाठी ईश्वराची प्रार्थना करावी. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    सबाधः=बाधोपेताः । जनासः=जनाः । यं+त्वा=यं त्वाम् । वाजसातये=ज्ञानान्नादिलाभाय । ईळते=स्तुवन्ति । स त्वम् । वृत्रतूर्ये=विघ्नानां विनाशनिमित्ते कार्ये । बोधि=जानीहि ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सबाधः) नाना रोगशोकादिसहित (जनासः) मनुष्यगण (यं+त्वा) जिस तुझको (वाजसातये) ज्ञान और धनादिकों के लाभ के लिये (ईळते) स्तुति करते हैं, (सः) वह तू (वृत्रतूर्ये) निखिल विघ्नविनाश के कार्य्य के लिये (बोधि) हम लोगों की प्रार्थना सुन ॥१२ ॥

    भावार्थ

    जिस कारण मानवजाति रोगशोकादि अनेक उपद्रवों से युक्त है, अतः उन सबकी निवृत्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करें ॥१२ ॥

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    विषय

    परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( यं त्वा ) जिस तुझ को (स-बाधः) बाधा या पीड़ा सहित दुःखी जन ( वाज-सातये ) ज्ञान और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ( ईडते ) स्तुति करते हैं। ( सः ) वह तू ( वृत्र-तूर्ये ) विघ्नादि के नाश करने के कार्य में ( बोधि ) हमें ज्ञानवान् कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वाजसातये

    पदार्थ

    [१] (सबाधः) = शत्रुओं के बाधन के साथ विद्यमान (जनासः) = लोग, अर्थात् काम, क्रोध, लोभ को जीतनेवाले लोग, हे प्रभो ! (यं त्वां) = जिन आपको (ईडते) = उपासित करते हैं। वे लोग (वाजसातये) = शक्ति को प्राप्त करने के लिए होते हैं। [२] हे प्रभो ! (सः) = वे आप (वृत्रतूर्ये) = वासना के संहार के निमित्त (बोधि) = हमें बोधवाला करिये ज्ञान देकर हमें वासनाविनाश के योग्य बनाइए ।

    भावार्थ

    भावार्थ:- उपासक वही है जो काम-क्रोध आदि का संहार करता है। यह उपासक शक्ति को प्राप्त करता है। प्रभु इसे ज्ञानसम्पन्न करके वासना के विनाश के योग्य बनाते हैं।

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