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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    सा द्यु॒म्नैर्द्यु॒म्निनी॑ बृ॒हदुपो॑प॒ श्रव॑सि॒ श्रव॑: । दधी॑त वृत्र॒तूर्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा । द्यु॒म्नैः । द्यु॒म्निनी॑ । बृ॒हत् । उप॑ऽउप । श्रव॑सि । श्रवः॑ । दधी॑त । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सा द्युम्नैर्द्युम्निनी बृहदुपोप श्रवसि श्रव: । दधीत वृत्रतूर्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सा । द्युम्नैः । द्युम्निनी । बृहत् । उपऽउप । श्रवसि । श्रवः । दधीत । वृत्रऽतूर्ये ॥ ८.७४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That light and power, splendid and boundless with the might and majesty of divinity, may bear greater and greater potential closer and closer to us in the progressive task of the elimination of darkness and evil.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ईश्वराकडून प्राप्त झालेल्या सुबुद्धीद्वारे आम्ही विज्ञान व यश प्राप्त करावे. कुणाची हानी करू नये. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    सा=तव कृपया प्राप्ता मतिः । द्युम्नैः=विज्ञानैः । द्युम्निनी=विज्ञानवती भवतु । तथा श्रवसि=कल्याणकारिणी । वृत्रतूर्ये=विघ्नविनाशककार्ये । बृहत् । श्रवः=यशः । उपोप+दधीत=अस्माकं समीपे दधातु ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आपकी कृपा से प्राप्त (सा) वह मति (द्युम्नैः) विज्ञानों से (द्युम्निनी) विज्ञानवती होवे तथा (श्रवसि) यशः कल्याणकारी (वृत्रतूर्ये) विघ्नविनाशक कार्य में (बृहत्) बहुत (श्रवः) यश (उपोप+दधीत) हम लोगों के समीप स्थापित करें ॥९ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! ईश्वर से प्राप्त सुबुद्धि द्वारा हम लोग विज्ञान और यश प्राप्त करें, किसी को हानि न पहुँचावें ॥९ ॥

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    विषय

    परमेश्वर का स्वरूप उस से नाना प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    (सा) वह ( द्युम्नैः धुम्निनी ) प्रकाशों से प्रकाश युक्त वाणी ( वृत्र-तूर्ये ) आवरणकारी अज्ञानान्धकार को नाश करने के निमित्त ( वृहत् श्रवः ) बड़ा भारी ज्ञान ( श्रवसि ) कान में ( उप दधीत ) धारण करावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    घुम्नैः द्युम्निनी

    पदार्थ

    [१] (सा) = वह प्रभु के लिए की जानेवाली स्तुति (घुम्नैः द्युम्निनी) = ज्ञानज्योतियों से ज्योतिर्मयी हो । स्तुति से हमारा हृदय प्रकाशमय बने। [२] यह स्तुति (वृत्रतूर्ये) = वासना के विनाश के निमित्त हमारे (श्रवसि) = कान में (बृहत् श्रवः) = खूब ज्ञान को (उप उप दधीत) = समीपता से धारण करे। हम ज्ञान की वाणियों का श्रवण करते हुए प्रकाशमय जीवनवालें बनें। इस प्रकाश में वासनाओं के अन्धकार का विलय हो जाए।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्तुति हमारे जीवन को प्रकाशमय बनायें। इस प्रकाश में वासना का विलय हो जाए।

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