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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 16
    ऋषिः - विरुपः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वि॒द्मा हि ते॑ पु॒रा व॒यमग्ने॑ पि॒तुर्यथाव॑सः । अधा॑ ते सु॒म्नमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । हि । ते॒ । पु॒रा । व॒यम् । अग्ने॑ । पि॒तुः । यथा॑ । अव॑सः । अध॑ । ते॒ । सु॒म्नम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्मा हि ते पुरा वयमग्ने पितुर्यथावसः । अधा ते सुम्नमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । हि । ते । पुरा । वयम् । अग्ने । पितुः । यथा । अवसः । अध । ते । सुम्नम् । ईमहे ॥ ८.७५.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light, we know and realise your universal acts of protection and grace and we pray for the peace and joy of the blessings of your fatherly presence for all time.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ईश! तुझे साह्य मिळते हे आम्ही खूप दिवसांपासून जाणतो, त्यामुळे तुझ्याकडून त्याची अपेक्षा करतो. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अग्ने ! यथा पितुः पालनं पुत्रो जानाति तथा वयमपि । पुरा=बहुकालात् । ते=तव । अवसः=रक्षणम् । विद्म । अव । तस्मात् । ते । सुम्नं=सुखम् । ईमहे=याचामहे ॥१६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वशक्ते ! (यथा) जैसे (पितुः) पिता का पालन पुत्र जानता है, वैसे (वयं) हम लोग (पुरा) बहुत दिनों से (ते) तुम्हारा (अवसः) रक्षण और साहाय्य (विद्म) जानते हैं, (अध) इस कारण (ते) तुमसे (सुम्नं) सुख की (ईमहे) याचना करते हैं ॥१६ ॥

    भावार्थ

    हे ईश ! जिस हेतु आपका सहाय बहुत दिनों से हम लोग जानते हैं, इस हेतु आपसे उसकी अपेक्षा करते हैं ॥१६ ॥

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    विषय

    सेनापति के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) प्रतापशालिन् ! ( अवसः पितुः यथा) जिस प्रकार रक्षक पिता के सुख वा उत्तम धन को पुत्र चाहता है उसी प्रकार (पुरा) पूर्ववत् ( अवसः ) रक्षक (पितुः) पालक रूप ( ते ) तेरे ( सुम्नम् ) सुखक को ( हि ) हम भी ( विद्म ) जानें और ( अध ते ईमहे ) तुझ से हम याचना करते हैं। इति षड्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    वह पिता [प्रभु]

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (पितुः ते) = पितृरूप आपके-रक्षण आपके (अवसः) = रक्षण को (वयम्) = हम यथा पुरा पहले की तरह, अर्थात् सदा से (विद्मा हि) = अवश्य प्राप्त करें। आप सदा से हमारा रक्षण करते आये हैं। हम अब भी आपके रक्षणीय हों। [२] (अधा) = अब (ते) = आपके (सुम्नं) = [hymn] स्तोत्र को (ईमहे) = हम चाहते हैं। आपके स्तवन में ही हम सदा आनन्द का अनुभव करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे सनातन काल से रक्षक हैं। हम सदा प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें। प्रभु का स्तवन करते हम 'सुति' = सोमसम्पादन को 'कुरु' करनेवाले 'कुरुसुति' बनें। सोमरक्षण करते हुए ही हम यज्ञ (सुति) शील बनें। यही बुद्धिमत्ता है। यह ' काण्व' बुद्धिमान् 'कुरुसुति' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह इन्द्र नाम से प्रभु का स्तवन करता है-

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