ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 5
तं ने॒मिमृ॒भवो॑ य॒था न॑मस्व॒ सहू॑तिभिः । नेदी॑यो य॒ज्ञम॑ङ्गिरः ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ने॒मिम् । ऋ॒भवः॑ । य॒था॒ । आ । न॒म॒स्व॒ । सहू॑तिऽभिः । नेदी॑यः । य॒ज्ञम् । अ॒ङ्गि॒रः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं नेमिमृभवो यथा नमस्व सहूतिभिः । नेदीयो यज्ञमङ्गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । नेमिम् । ऋभवः । यथा । आ । नमस्व । सहूतिऽभिः । नेदीयः । यज्ञम् । अङ्गिरः ॥ ८.७५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as craftsmen bend and complete to perfection the felly of a wheel, so bend in homage to Agni, feed the fire, giver of vitality, with conjoint action and oblations, and O fire of yajna, dear as breath of life, closest friend, pray complete the circuit of yajnic regeneration for the yajakas.
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही सदैव शुभ कर्मात सदैव प्रवृत्त असावे त्यासाठी सदैव ईश्वराला प्रार्थना करावी. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे विद्वन् ! सहूतिभिः=समानप्रार्थनाभिः । तं+आनमस्व= नमस्कारं कुरु । यथा ऋभवः=रथकाराः । नेमिम्= नमस्कुर्वन्ति । हे अङ्गिरः=अङ्गानां रस ! यज्ञम्+नेदीयः= अन्तिकतमं कुरु ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे विद्वद्गण ! (सहूतिभिः) समान प्रार्थनाओं से (तम्) उस ईश्वर को (आनमस्व) नमस्कार करो (यथा) जैसे (ऋभवः) रथकार (नेमिम्) रथ का सत्कार करते हैं, तद्वत् । (अङ्गिरः) हे अङ्गों का रसप्रद (यज्ञम्) शुभकर्म (नेदीयः) हम लोगों के निकट कीजिये ॥५ ॥
भावार्थ
सदा ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये, जिससे हम लोग शुभकर्म में सदा प्रवृत्त रहें ॥५ ॥
विषय
चक्रधारा के तुल्य राष्ट्रचक्र-नीति को वश करने का उपदेश।
भावार्थ
हे ( अंगिरः ) विद्वान् ! तेजस्विन् ( ऋभवः यथा नेमिम् ) विद्वान् शिल्पी लोग जिस प्रकार चक्र के समस्त अरों के चारों ओर नेमि या लोहपरिधि को नमाते हैं उसी प्रकार तू ( सहूतिभिः ) समान रूप से आह्वान करने योग्य वा समान वेतनादि देने हारे शासकों से ( तं यज्ञम् ) उस यज्ञ, परस्पर संगत राष्ट्र को, ( नेदीयः नमस्व ) अति समीप २ झुका, अपने वश कर। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥
विषय
यज्ञमय जीवन
पदार्थ
[१] हे (अङ्गिरः) = सब गतियों के देनेवाले प्रभो ! [अगि गतौ] आप (सहूतिभिः) = [ हूत्या सह वर्तन्ते] आपको पुकारनेवाले उपासकों के साथ (तं यज्ञं) = उस यज्ञ को (नेदीयः नमस्व) = हमारे बहुत समीप नत करिये। इस प्रकार समीप करिये (यथा) = जैसे (ऋभवः) = शिल्पी (नेमिं) = चक्र परिधि को अरों पर नमाते हैं। [२] नेमि ने अरों को अपने में आवृत किया हुआ होता है, इसी प्रकार यज्ञ भी हमारे जीवनों को आवृत किया हुआ हो। हम उपासकों के साथ सदा सद्विचारों के वातावरण में रहते हुए यज्ञमय जीवन बिताएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु को पुकारने वाले लोगों के साथ हमारा सम्पर्क हो, उनके साथ पवित्र विचारोंवाले बनते हुए हम यज्ञमय जीवनवाले बनें।
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