ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 78/ मन्त्र 8
ऋषिः - कुरुसुतिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वे वसू॑नि॒ संग॑ता॒ विश्वा॑ च सोम॒ सौभ॑गा । सु॒दात्वप॑रिह्वृता ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । वसू॑नि । सम्ऽग॑ता । विश्वा॑ । च॒ । सो॒म॒ । सौभ॑गा । सु॒ऽदातु॑ । अप॑रिऽह्वृता ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे वसूनि संगता विश्वा च सोम सौभगा । सुदात्वपरिह्वृता ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति । वसूनि । सम्ऽगता । विश्वा । च । सोम । सौभगा । सुऽदातु । अपरिऽह्वृता ॥ ८.७८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 78; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, lord of peace and joy, in you concentrate all wealth, honour and excellences of the world, all good fortunes, spontaneous generosity, free from crookedness and ambiguity as you are, simple and straight, no double dealing.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर संपूर्ण जगाचा अधिपती आहे. त्यामुळे दान देणे त्याला मुळीच कठीण नाही. जर आम्ही मानवांनी अंत:करणापासून आपले अभीष्ट मागितले तर तो ते अवश्य पूर्ण करील. ॥८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे सोम=सर्वपदार्थमय देव ! त्वे=त्वै । विश्वा=सर्वाणि । वसूनि=धनानि । सङ्गता संगतानि । च=पुनः । सर्वाणि । सौभगा=सौभाग्यानि । अत एव । सुदातु=सुदानानि । अपरिह्वृता=अकुटिलानि=सुकराणि ॥८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(सोम) हे सर्वपदार्थमय देव ! (त्वे) तुममें (विश्वा) सर्व प्रकार के (वसूनि) धन (सङ्गता) विद्यमान हैं और सर्वप्रकार के (सौभगा) सौभाग्य तुममें संगत हैं, इस हेतु हे ईश ! (सुदातु) सब प्रकार के दान (अपरिह्वृता) सहज हैं ॥८ ॥
भावार्थ
जिस कारण सम्पूर्ण संसार का अधिपति वह परमात्मा है, अतः उसके लिये दान देना कठिन नहीं । यदि हम मानव अन्तःकरण से अपना अभीष्ट माँगें, तो वह अवश्य उसको पूर्ण करेगा ॥८ ॥
विषय
सर्वैश्वर्य स्वामी प्रभु।
भावार्थ
हे (सोम ) सर्वप्रेरक ! सर्व-उत्पादक प्रभो ! ( त्वे ) तुझ में और तेरे अधीन ही ( विश्वा वसूनि विश्वा च सौभगा ) समस्त ऐश्वर्य और समस्त सुखदायक कल्याणकारी धन, ( सं-गता ) एकत्र हैं। तू उनको (अपरि-ह्वृता) अकुटिल, सुप्राप्य ( सु-दातु) सुखदायक बना कर प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुरुसुतिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३ निचृद् गायत्री। २, ६—९ विराड् गायत्री। ४, ५ गायत्री। १० बृहती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वसूनि + सौभगा
पदार्थ
[१] हे (सोम) = सोम का पान करनेवाले [सोमपायिन्] इन्द्र ! (त्वे) = आप में (वसूनि) = निवास के लिये आवश्यक सब तत्त्व - सब धन संगता-संगत होते हैं। (च) = और आप में ही सब (शौभगा) = सौभाग्य संगत हुए हैं। सोमशक्ति का रक्षण हमारे जीवनों को भी वसुओं और सौभाग्यों से संगत करे। [२] हे प्रभो! आपके (सुदानु) = उत्तम दान (अपरिहृता) = कुटिलता से रहित हैं। प्रभु के अनुग्रह से हमें 'स्वास्थ्य, पवित्रता व ज्ञानदीप्ति' प्राप्त होती है। इनके प्राप्त होने से हमारा जीवन अकुटिल बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से हमें सब वसु व सौभाग्य प्राप्त हों। ये वसु व सौभाग्य हमारे जीवनों को अकुटिल बनाएँ।
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