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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 4
    ऋषिः - एकद्यूर्नौधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॒ प्र णो॒ रथ॑मव प॒श्चाच्चि॒त्सन्त॑मद्रिवः । पु॒रस्ता॑देनं मे कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । प्र । नः॒ । रथ॑म् । अ॒व॒ । प॒श्चात् । चि॒त् । सन्त॑म् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । पु॒रस्ता॑त् । ए॒न॒म् । मे॒ । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र प्र णो रथमव पश्चाच्चित्सन्तमद्रिवः । पुरस्तादेनं मे कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । प्र । नः । रथम् । अव । पश्चात् । चित् । सन्तम् । अद्रिऽवः । पुरस्तात् । एनम् । मे । कृधि ॥ ८.८०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of thunderous action, pray protect our chariot of life even if it lag behind and let it move on ahead for the sake of our survival and advancement.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    महासंग्रामात विजय प्राप्त करण्यासाठी त्याचीच प्रार्थना करावी. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! नः=अस्माकम् । रथम्+प्राव । हे अद्रिवः=संसाररक्षक ! एनं+मे=मम रथम् । पश्चाच्चित्सन्तम्=पश्चाद् विद्यमानमपि । पुरस्ताद्= अग्रगामिनम् । कृधि=कुरु ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! सर्वद्रष्टा परमेश्वर (नः) हम लोगों के (रथम्) रथ को महासंग्राम में (प्र+अव) बचा तथा (पश्चात्+चित्+सन्तम्) पीछे विद्यमान भी (मे+एनं) मेरे इस रथ को (पुरस्तात्) अग्रसर (कृधि) कर ॥४ ॥

    भावार्थ

    महा संग्राम में विजयप्राप्ति के लिये उसी से प्रार्थना करे ॥४ ॥

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    विषय

    उत्तम रक्षक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् तू ( नः ) हमारे ( रथम् प्र अव ) रमणकारक सुखप्रद रथवत् देह की अच्छी प्रकार रक्षा कर। ( पश्चात् चित् सन्तम् मे एनं ) पिछड़े हुए भी इस मेरे रथ को ( पुरस्तात् कृधि ) आगे कर। सफलता के मार्ग पर यदि मैं पिछडूं तो तू मुझे आगे बढ़ा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    एकद्यूनौंधस ऋषिः॥ १—९ इन्द्रः। १० देवा देवता॥ छन्दः—१ विराड् गायत्री। २, ३, ५, ८ निचद् गायत्री। ४, ६, ७, ९, १० गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'उन्नति के साधक' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (नः रथम्) = हमारे इस शरीररथ को (प्र अव) = प्रकर्षेण रक्षित करिये। आपने ही शक्ति व प्रज्ञान को प्राप्त कराके हमें सुरक्षित करना है। [२] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! आप (पश्चात् चित् सन्तम्) = पीछे भी होते हुए पिछड़े हुवे भी (एनम्) = इस (मे) = मेरे [रथं=] शरीररथ को (पुरस्तात् कृधि) = आगे करिये। आपके अनुग्रह से हम अवनत न रहकर खूब उन्नत हो जाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे शरीररथ का रक्षण करते हैं। ये हमें आगे बढ़ाते हैं ।

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