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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 81/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॑ क्रम॒स्वा भ॑र धृष॒ता धृ॑ष्णो॒ जना॑नाम् । अदा॑शूष्टरस्य॒ वेद॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । क्र॒म॒स्व॒ । आ । भ॒र॒ । धृ॒ष॒ता । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । जना॑नाम् । अदा॑शूःऽतरस्य । वेदः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप क्रमस्वा भर धृषता धृष्णो जनानाम् । अदाशूष्टरस्य वेद: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । क्रमस्व । आ । भर । धृषता । धृष्णो इति । जनानाम् । अदाशूःऽतरस्य । वेदः ॥ ८.८१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 81; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, generous and fearless lord of wealth, honour and power, come close with divine courage and force, bring us the honour and excellence of life, and let it not waste away like the wealth of the uncharitable and the ungrateful.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धनसंपन्न असूनही जो असमर्थांना देत नाही त्याचे धन नष्ट होते ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! उप+क्रमस्व=सर्वत्र विराजस्व । हे धृष्णो=विघ्नविनाशक ! धृषतः=परमोदारेण चेतसा । जनानाम्=चेतांसि आभर । अदाशूष्टरस्य=अत्यन्तम्= अत्यन्तमदातृतमस्य । वेदो धनं सं हरेति शेषः ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (उप+क्रमस्व) हे भगवन् ! सबके हृदय में विराजमान होओ (धृष्णो) हे निखिल विघ्नविनाशक ! (धृषता) परमोदार चित्त से (जनानाम्) मनुष्यों के हृदय को (आ+भर) पूर्ण कर, (अदाशूष्टरस्य) जो कभी दान प्रदान नहीं करता, उसके (वेदः) धन को छिन्न-भिन्न कर दे ॥७ ॥

    भावार्थ

    धनसम्पन्न रहने पर भी जो असमर्थों को नहीं देता, उसका धन नष्ट हो जाय ॥७ ॥

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    विषय

    स्नेही प्रभु।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! तू ( उप क्रमस्च ) उद्यम कर ! हे ( घृष्णो ) शत्रु-पराजयकारिन् ! तू ( घृषता) शत्रु पराजय कारक बल से, ( जनानां ) मनुष्यों के बीच में ( अदाशूः-तरस्य वेदः ) अति अधिक कंजूस के धन को ( आ भर ) ले ले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ५, ८ गायत्री। २, ३, ६, ७ निचृद गायत्री। ४, ९ त्रिराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    कृपण धन-हरण

    पदार्थ

    [१] (उप क्रमस्व) = हे राजन् ! तू राष्ट्र में अनैतिक जीवनवाले पुरुषों पर आक्रमण करनेवाला है- उनके विरुद्ध कार्यवाही को करनेवाला हो। [to go against - उपक्रम] [२] हे (धृष्णो) = धर्षक राजन् ! तू (धृषता) = अपने शत्रुधर्षक बल से (जनानाम्) = लोगों में (अदाशूः तरस्य) = इस अतिकृपण व्यक्ति के (वेदः) = धन को (आभर) [आहर] = हर ले।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा को चाहिए कि राष्ट्र में कृपण व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करे और उनके धन का अपहरण करके उन्हें प्रवासित कर दे।

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