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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ते न॑: सन्तु॒ युज॒: सदा॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । वृ॒धास॑श्च॒ प्रचे॑तसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । नः॒ । स॒न्तु॒ । युजः॑ । सदा॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । वृ॒धासः॑ । च॒ । प्रऽचे॑तसः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते न: सन्तु युज: सदा वरुणो मित्रो अर्यमा । वृधासश्च प्रचेतसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । नः । सन्तु । युजः । सदा । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । वृधासः । च । प्रऽचेतसः ॥ ८.८३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Varuna, powers of law and justice, wisdom and discrimination, Mitra, powers of light, love and friendship, and Aryama, dynamic forces of nature and humanity, guides and path makers of life, all of them being powers of omniscience and givers of knowledge and awareness, be our friends and cooperators and help us advance in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात प्रथम मंत्रोक्त देवतांमधून काही जणांचे नाव व गुण सांगून त्याची पुनरावृत्ती केलेली आहे. उपासकाने या गुणांना सदैव आपले मित्र बनवावे. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वरुणः) जल, वायु, उत्तम विद्वान्, परमेश्वर आदि सब वरुण; (मित्रः) न्यायकारी होते हुए भी स्नेहशील परम प्रभु तथा सूर्य, अर्यमा विद्युत्, न्यायाधीश, कर्मानुसार फल देकर जीव की गतिविधि का नियमनकारी प्रभु आदि देव (वृधासः) बढ़ाने वाले (च)(प्रचेतसः) प्रकृष्ट रूप से [अपने गुणों द्वारा] चेताने वाले हैं; (ते) वे (सदा) सभी समय सर्वत्र (नः) हमारे (युजः) सहायक (सन्तु) हों॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र में बताए गए देवताओं में से कुछ के नाम व गुण गिनाकर यह संकल्प दुहराया गया है कि उपासक इन्हें अपना चिरसंगी बनायें॥२॥

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    विषय

    विद्वान् तेजस्वी, व्यवहारकुशल विद्वान् जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( वरुणः ) वरण करने योग्य, वृत राजा वा सभापति, ( मित्रः ) प्रजा का स्नेही, ( अर्यमा ) दुष्टों का नियन्ता, न्यायशील ये सब ( प्र-चेतसः ) उत्तम चित्त वाले, उत्तम ज्ञानसम्पन्न और ( वृधासः च ) बढ़ाने और दुष्टों का मूलोच्छेद करने वाले ( युजः सन्तु ) सहायक हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ विश्वे देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ गायत्री। ३ निचृद गायत्री। ४ पादनिचृद गायत्री। ७ आर्ची स्वराड गायत्री। ८ विराड गायत्री।

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    विषय

    'वृधासः+प्रचेतसः' [देवाः]

    पदार्थ

    [१] (ते) = वे (वरुणः) = द्वेष का निवारण करनेवाली देवता, (मित्रः) = स्नेह की देवता तथा (अर्यमा) = संयम की देवता [ अरीन् यच्छति] (नः) = हमारे (सदा) = सदा (युजः सन्तु) = साथी हों - इनका योग हमें सदा प्राप्त हो। [२] ये देव (वृधासः) = हमारी वृद्धि करनेवाले हैं - हमारे शत्रुओं का छेदन करनेवाले हैं [वर्धनम् = Cutting, Dividing], (च) = तथा (प्रचेतसः) = हमारी चेतना को प्रकृष्ट करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - माता, पिता, आचार्य आदि के रक्षण में हम 'निर्देषता, स्नेह व संयम' वाले बनें। ये दिव्य भाव हमारी वृद्धि का कारण होंगे और हमें प्रकृष्ट चेतनावाला करेंगे।

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