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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वा॒मस्य॒ हि प्र॑चेतस॒ ईशा॑नाशो रिशादसः । नेमा॑दित्या अ॒घस्य॒ यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒मस्य॑ । हि । प्र॒ऽचे॒त॒सः॒ । ईशा॑नासः । रि॒शा॒द॒सः॒ । न । ई॒म् । आ॒दि॒त्याः॒ । अ॒घस्य॑ यत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वामस्य हि प्रचेतस ईशानाशो रिशादसः । नेमादित्या अघस्य यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वामस्य । हि । प्रऽचेतसः । ईशानासः । रिशादसः । न । ईम् । आदित्याः । अघस्य यत् ॥ ८.८३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Adityas, generous and brilliant leaders of what is good and noble, all-aware of good and evil, destroyers of violence and negativities, you are the rulers, controllers and guides only of the true, the good and the beautiful. You never favour or approve of what is evil and sinful.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आदित्य ब्रह्मचारी लोकांना जे प्रबोध करतात ते प्रशंसनीय व सेवन करण्यायोग्यच असतात. कारण पाप करणाऱ्या विचारांना ते थारा देत नाहीत. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (प्रचेतसः) प्रकृष्ट ज्ञान युक्त, (रिशादसः) हिंसक भावनाओं, प्रवृत्तियों व अन्यों को नष्ट करने वाले (आदित्याः) ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित रह सुशिक्षा प्राप्त विद्वानो! आप (वामस्य) प्रशस्त ज्ञानधन के (ईशानासः) स्वामी हैं; (यत्) जो ऐश्वर्य (अघस्य) पाप का है (ईम्) उसे (न) आप नहीं पाते॥५॥

    भावार्थ

    आदित्य ब्रह्मचारी जो प्रबोध देते हैं वह प्रशंसनीय व ग्रहण करने योग्य ही होते हैं; कारण कि पाप का ज्ञान वे अपनाते ही नहीं॥५॥

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    विषय

    विद्वान् तेजस्वी, व्यवहारकुशल विद्वान् जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( प्र-चेतसः ) उत्कृष्ट चित्त वालो ! हे ( रिशादसः ) हिंसक जनों को उखाड़ फेंकने वाले वीर जनो ! आप लोग ( वामस्य ) उत्तम, सेवने योग्य धन के ही ( ईशानासः ) स्वामी हो। हे ( आदित्याः ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा वा माता तुल्य भूमि के पुत्रवत् सेवक जनो ! ( यत् ) जोधन ( अघस्य ) पाप का है ( न ईम् ईशानासः ) आप लोग उसके स्वामी न हों। हम भी ऐसे धन की कामना नहीं करते। सदा पुण्य की कमाई हमें प्राप्त हो। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ विश्वे देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ गायत्री। ३ निचृद गायत्री। ४ पादनिचृद गायत्री। ७ आर्ची स्वराड गायत्री। ८ विराड गायत्री।

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    विषय

    पाप की कमायी नहीं

    पदार्थ

    [१] हे (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानोंवाले, (रिशादसः) = शत्रुओं को नष्ट कर देनेवाले देवो! आप (हि) = निश्चय से (वामस्य) = सुन्दर [वननीय] धनों के ही (ईशानासः) = स्वामी हैं। आपके अनुग्रह से हमें (वाम) = धन ही प्राप्त हो। [२] हे (आदित्याः) = अदिति [स्वास्थ्य] के पुत्रो ! पूर्ण स्वस्थ देवो ! आप (ईम्) = निश्चय से उस धन के (ईशान न) = नहीं होते हो (यत् अघस्य) = जो धन पाप का है। हम भी पाप के मार्ग से कभी धन का अर्जन न करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रकृष्ट ज्ञानवाले बनें, काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करें और सदा शुभ मार्ग से धन का अर्जन करें।

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